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छज्जीवनिया ( षड्जीवनिका )
४०. आत्मा का उत्सर्ग करता हूँ ( अप्पाणं योसिरामि )
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आत्मा हे या उपादेय कुछ भी नहीं है । उसकी प्रवृत्तियाँ हेय या उपादेय बनती हैं। साधना की दृष्टि से हिंसा आदि असत्प्रवृतियाँ जिनसे आत्मा का बन्धन होता है, हेय हैं और अहिंसा आदि सत्प्रतियां एवं संवर उपादेय हैं।
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साधक कहता है - मैं अतीत काल में असत् प्रवृत्तियों में प्रवृत्त आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ अर्थात् आत्मा की असत्प्रवृत्ति का त्याग करता हूँ' ।
प्रश्न किया जा सकता है कि अतीत के दण्ड का ही यहाँ प्रतिक्रमण यावत् व्युत्सर्ग किया है अतः वर्तमान दण्ड का संवर और अनागत दण्ड का प्रत्याख्यान यहाँ नहीं होता । टीकाकार इसका उत्तर देते हुए कहते हैं- ऐसी बात नहीं है । 'न करोमि' आदि से वर्तमान के संवर और भविष्यत् के प्रत्याख्यान की सिद्धि होती है ।
अध्ययन ४ : सूत्र १० टि० ४०
'तस्स भंते‘''वोसिरामि' दण्ड समारंभ न करने की प्रतिज्ञा ग्रहण करने के बाद शिष्य जो भावना प्रकट करता है वह उपर्युक्त शब्दों में व्यक्त है ।
सूत्र ४-६ में पजीवनिकायों का वर्णन है। प्रस्तुत अनुच्छेद में इन पट्-वीवनिकायों के प्रति दण्ड-समारंभ के प्रत्याख्यान का उल्लेख है। यह क्रम आकस्मिक नहीं पर सम्पूर्णतः वैज्ञानिक और अनुभव है जिसको जीवों का ज्ञान नहीं होता, उनके अस्तित्व में श्रद्धा-विश्वास नहीं होता, वह व्यक्ति जीवन व्यवहार में उनके प्रति संयमी, अहिसक अथवा चारित्रवान नहीं हो सकता । कहा है- "जो जिन प्ररूपित पृथ्वीकायादि जीवों के अस्तित्व में श्रद्धा नहीं करता वह पुण्य-पाप से अनभिगत होने के कारण उपस्थापन के योग्य नहीं होता । जिसे जीवों में श्रद्धा होती है वही पुण्य-पाप से अभिगत होने के कारण उपस्थापन के योग्य होता है ।"
व्रत ग्रहण के पूर्व जीवों के ज्ञान और उनमें विश्वास की कितनी आवश्यकता है, इसको बताने के लिए निम्नलिखित दृष्टान्त मिलते है
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१ - जैसे मलिन वस्त्र पर रंग नहीं चढ़ता और स्वच्छ वस्त्र पर सुन्दर रंग चढ़ता है, उसी तरह जिसे जीवों का ज्ञान नहीं होता, जिसे उनके अस्तित्व में शंका होती है वह अहिंसा आदि महाव्रतों के योग्य नहीं होता । जिसे जीवों का ज्ञान और उनमें श्रद्धा होती है वह उपस्थापन के योग्य होता है और उसी के व्रत सुन्दर और स्थिर होते हैं ।
२ - जिस प्रकार प्रासाद - निर्माण के पूर्व भूमि को परिष्कृत कर देने से भवन स्थिर और सुन्दर होता है और अपरिष्कृत भूमि पर असुन्दर और अस्थिर होता है, उसी तरह मिथ्यात्व की परिशुद्धि किये बिना व्रत ग्रहण करने पर व्रत टिक नहीं पाते ।
३ – जिस तरह रोगी को औषधि देने के पूर्व उसे वमन विरेचन कराने से औषधि लागू पड़ती है, उसी तरह जीवों के अस्तित्व में श्रद्धा रखते हुए जो व्रत ग्रहण करता है उसके महाव्रत स्थिर होते हैं ।
सारांश यह है - जो जीवों के विषय में कहा गया है, उसे जानकर, उसकी परीक्षा कर मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदित रूप से जो षटू-जीवनिकाय के प्रति दण्ड-समारम्भ का परिहार करता है वही चारित्र के योग्य होता है ।
कहा है-शोषित सिष्य को प्रतारोहण नहीं कराना चाहिए, शोभित को कराना चाहिए। अशोधित को कराने से
१ (क) अ० चू० पृ० ७८ : अप्पाणं सव्वसत्ताणं दरिसिज्जए, वोसिरामि विविहेहि प्रकारेहिं सव्वावत्थं परिच्चयामि । दंडसमारंभपरिहरणं चरितधम्मप्पमुहमिदं ।
२० टी० ० १४४
(ख) हा० टी० प० १४४ 'आत्मानम्' अतीतदण्डकारणमश्लाध्यं युत्तृजाबी'ति विविधार्थी विशेषायों या विशब्दः उच्यन्दो भृशार्थः सृजामीति -त्यजामि ततश्च विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि व्युत्सृजामीति ।
पदेषमतीतदण्डप्रतित्रमण मात्र मदश्ययं न प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागतप्रत्यात्यानं चेति मं तदेवं
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न करोमीत्यादिना तदुभवसिद्ध रिति ।
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