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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १३५ अध्ययन ४ : सूत्र ११ टि० ४१ गुरु को दोष लगता है। शोधित को व्रतारूढ़ कराने से अगर वह पालन नहीं करता तो उसका दोष शिष्य को लगता है, गुरु को नहीं लगता।" सूत्र ११ : इसके पूर्व अनुच्छेद में शिष्य द्वारा सार्वत्रिक रूप मे दण्ड-समारम्भ का प्रत्याख्यान किया गया है। प्राणतिपात, मृषा वाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह-ये प्राणियों के प्रति सूक्ष्म दण्ड हैं । इन वृत्तियों से दूसरे जीवों को परिताप होता है। प्रस्तुत तथा बाद के चार सूत्रों में प्राणातिपात आदि सूक्ष्म दण्डों के त्याग की शिष्य द्वारा स्वतंत्र प्रतिज्ञाएँ की गई हैं । ४१. पहले ( पढमे ) : सापेक्ष दृष्टि के अनुसार कोई वस्तु अपने आप में अमुक प्रकार की नहीं कही जा सकती। किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा से ही वह उस प्रकार की कही जा सकती है। उदाहरणस्वरूप कोई वस्तु स्वयं में हल्की या भारी नहीं कही जा सकती। वह अन्य भारी वस्तु की अपेक्षा से ही हल्की और अन्य हल्की बस्तु की अपेक्षा से ही भारी कही जा सकती है। यहाँ जो 'पढमे' पहले शब्द का प्रयोग है वह १- (क) जि० चू० पृ० १४३-४४ : जो ऐसो दंडनिक्खेवो एवं महब्वयारुहणं तं किं सम्वेसि अविसेसियाणं महन्वयारुहणं कोरति उदाहो परिक्खिऊणं ?, आयरिओ भणइ -- जो इमाणि कारणाणि सद्द हइ, 'जीवे पुढविक्काए न सद्दहइ जे जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगयपुग्णपावो ण सो उवट्ठावणे जोगो ॥१॥ एवं आउक्काइए जीवे एवं जाव तसकाइए जीवे, एयारिसस्स पुण समारुभिज्जति, तं० ---'पुढविकाइए जीवे सद्दहइ जे जिणेहिं पण्णत्ते। अभिगतपुण्णपावो सो उवढावणाजोगो' ॥१॥ एवं आउक्काइए जीवे एवं जाव तप्तकाइए जीवे, अभिगतपुण्णपावो सो उवट्ठावणाजोगो, छज्जीवनिकाए पढियाए ताहे परिक्खिज्जइ, कि? - परिहरइण परिहरइत्ति, जइ परिहरइ तो उवट्ठाविज्जइ, इतरो न उवट्ठाविज्जति, कहं ?, जह मइलो पडो रंगिओ न सुंदरो भवइ सो, इयरो रंगिज्जमाणो सुंदरो भवइ, एवं जई असद्दहियाए छज्जीवणियाए उवट्ठाविज्जइ तो महवयाणि न धरेइ, सद्दहियाए छज्जीवणियाए उवद्वाविज्जमाणे थिरया भवंति सुदरो य भवइ, जहा वा पासादो कज्जमाणो जई कयवरं सोहित्ता कज्जइ तो सुदरो य थिरो य भवइ, असोहिए पुण अथिरो भवइ, एवं कयवरथाणीए मिच्छत्ते असोहिए उवढाविज्जइ तो महन्वयाणि न थिराणि भवंति, जहा आउरस्स ओसहं वियरिज्जई तं जड वमणविरेयणाणि काऊण दिज्जइ तो लग्गइ, एवं जइ सहहितादिसु उवट्ठाविज्जति ता धरेइ महत्वए असद्द हितासु अथिराणि भवति, जम्हा एते दोसा तम्हा पढियाए कहियाए सहहियाए परिक्खिते परिहरिए, अभिगते णाम जति अपव्वावणिज्जाणं णण्णतरो ण भवति ताहे विसुद्धो उबट्ठाविज्जति, तस्स य महन्वयाणि अर्भाणयाणि न णजंति तओ ताणि भषणंति । (ख) हा० टी० ५० १४५ : अनेन व्रतार्थपरिज्ञानादिगुणयुक्त उपस्थापनाह इत्येतदाह, उक्तं च - पढिए य कहिय अहिगय परिहरउवठावणाइ जोगोत्ति । छवक तीहिं विसुद्ध परिहर णवएण भेदेण ॥१॥ पडपासाउरमादी दिट्ठता होंति वयसमारहणे । जह मलिणाइसु दोसा सुद्धाइसु णेव मिहईपि ॥ २ ॥ इत्यादि, एतेसि लेसुद्देसेण सोसहियट्ठयाए अत्यो भण्णइ-पढियाए सत्थपरिणाए दसकालिए छज्जीवणि काए वा, कहियाए अस्थओ, अभिगयाए संमं परिक्खिखऊण-परिहरइ छज्जीवणियाए मण वयणकाएहिं कयकारावियाणुमइभेदेण, तओ ठाविज्जइ, ण अन्नहा । इमे य इत्थ पड़ादी दिलैंता--मइलो पडो ण रंगिज्जइ सोहिओ रंगिज्जइ, असोहिए मूलपाए पासाओ ण किज्ज सोहिए किज्जइ, वमणाईहिं असोहिए आउरे ओसह न दिज्जइ सोहिए दिज्जइ, असंठविए रयणे पडिबन्धो न किज्जइ संठविए किज्जइ, एवं पढियकहियाईहि असोहिए सीसे ण वयारोवणं किज्जई, ''असोहिए य करणे गुरुणो दोसा, सोहियापालणे सिस्सस्स दोसो त्ति कयं पसंगेण। २-हा० टी० ५० १४४ : अयं चात्मप्रतिपत्त्य) दण्डनिक्षेपः सामान्यविशेषरूप इति, सामान्येनोक्तलक्षण एव, स तु विशेषतः । पञ्चमहाव्रतरूपतयाऽप्यङ्गीकर्तव्य इति महावतान्याह । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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