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________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १३६ अध्ययन ४ : सूत्र ११ टि० ४२-४३ भी बाद के अन्य मृषावाद आदि की अपेक्षा से है। सूत्रक्रम के प्रमाण से पहला महाव्रत सर्व प्राणातिपातविरमण व्रत है । ४२. महाव्रत ( महत्वए): _ 'व्रत' का अर्थ है विरति । वह असत् प्रवृत्ति की होती हैं। उसके पांच प्रकार हैं--प्राणातिपात-विरति, मृषावाद-विरति, अदत्तादान-विरति, मैथुन-विरति और परिग्रह-विरति । अकरण, निवृत्ति उपरम और विरति-ये पर्यायवाची शब्द हैं । 'व्रत' शब्द का प्रयोग निवृत्ति और प्रवृत्ति- दोनों अर्थों में होता है । 'वषलान्नं व्रतयति' का अर्थ है वह शूद्र के अन्न का परिहार करता है। ‘पयो व्रतयति' -का अर्थ है कोई व्यक्ति केवल दूध पीता है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं खाता। इसी प्रकार असत्-प्रवृत्ति का परिहार और सत्प्रवृत्ति का आसेवन - इन दोनों अर्थों में व्रत शब्द का प्रयोग किया गया है । जो प्रवृत्ति निवृत्ति-पूर्वक होती है वही सत् होती है। इस प्रधानता की दृष्टि से व्रत का अर्थ उसमें अन्तहित होता है । व्रत शब्द साधारण है। यह विरति-मात्र के लिए प्रयुक्त होता है। इसके अणु और महान् --ये दो भेद विरति की अपूर्णता तथा पुर्णता के आधार पर किए गए हैं। मन, वचन और शरीर से न करना, न कराना और न अनुमोदन करना—ये नौ विकल्प हैं । जहाँ ये समग्र होते हैं वहाँ बिरति पूर्ण होती है। इनमें से कुछ एक विकल्पों द्वारा जो विरति की जाती है वह अपूर्ण होती है । अपूर्ण विरति अणुव्रत तथा पूर्ण विरति महाव्रत कहलाती है५ । साधु त्रिविध पापों का त्याग करते हैं अतः उनके व्रत महावत होते हैं। श्रावक के त्रिविधद्विविध रूप से प्रत्याख्यान होने से देशविरति होती है, अतः उनके व्रत अणु होते हैं। यहाँ प्राणातिपात-विरति आदि को महाव्रत और रात्रि-भोजन-विरति को व्रत कहा गया है । यह व्रत शब्द अणुव्रत और महाव्रत दोनों से भिन्न है। ये दोनों मूल-गुण हैं परन्तु रात्रि-भोजन मुल-गुण नहीं है । व्रत शब्द का यह प्रयोग सामान्य विरति के अर्थ में है । मूल-गुण-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह –पाँच हैं। महाव्रत इन्हीं की संज्ञा है। ४३. प्राणातिपात से विरमण होता है ( पाणाइवायाओ बेरमणं): इन्द्रिय, आयु आदि प्राण कहलाते हैं । प्राणातिपात का अर्थ है -प्राणी के प्राणों का अतिपात करना-जीव से प्राणों का विसंयोग १-(क) जि० चू० पृ० १४४ : पढमति नाम सेसाणि मुसावादादोणि पडुच्च एतं पढम भण्णइ । (ख) हा० टी०प०१४४ : सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्राणातिपातविरमणं प्रथमम् । (ग) अ० चू० पृ० ८० : पढमे इति आवेक्खिग, सेसाणि पडुच्च आदिल्लं, पढमे एसा सप्तमी, तम्मि उट्ठावणाधारविवक्खिगा। २--तत्त्वा० ७.१ : हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिवं तम् । ३-तत्त्वा० ७.१ भा० : अकरणं निवृत्तिरुपरमो विरतिरित्यनन्तरम् । ४---तत्त्वा० ७.१ भा० सि० टी० : व्रतशब्दः शिष्टसमाचारात् निवृत्ती प्रवृत्तौ च प्रयुज्यते लोके । निवृत्ते चेद् हिंसातो विरतिः निवृत्तिव्रत, यथा-वृषलान्नं व्रतयति-परिहरति । वृषलान्नान्निवर्तत इति, ज्ञात्वा प्राणिनः प्राणातिपातादेनिवर्तते । केवलमहिसादिलक्षणं तु क्रियाकलापं नानुतिष्ठतीति तदनुष्ठानप्रवृत्त्यर्थश्च व्रतशब्दः । पयोव्रतयतीति यथा, पयोऽभ्यवहार एव प्रवर्तते नान्यत्रेति, एवं हिंसादिभ्यो निवृत्तः शास्त्रविहितक्रियानुष्ठान एव प्रवर्तते, अतो निवृत्तिप्रवृत्तिक्रियासाध्यं कर्मक्षपणमिति प्रतिपादयति । ." प्राधान्यात् तु निवृत्तिरेव साक्षात् प्राणातिपातादिभ्योदर्शिता, तत्पूविका च प्रवृत्तिर्गम्यमाना। अन्यथा तु निवृत्तिनिष्फलैव स्यादिति । ५-तत्त्वा० ७.२ भा० : एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं, सर्वतो बिरतिर्महाव्रतमिति । ६-(क) जि० चू० पृ० १४४ : महन्वयं नाम महंतं वत, महन्वयं कथं ? सावगवयाणि खुड्डुगाणि, ताणि पडुच्च साहूण वयाणि महंताणि भवंति। (ख) जि० चू० पृ० १४६ : जम्हा य भगवंतो साधवो तिविहं तिविहेण पच्चक्खायंति तम्हा तेसि महव्वयाणि भवंति, सावयाण पुण तिविह दुविह पच्चक्खायमाणाणं देसविरईए खुड्डलगाणि वयाणि भवंति । (ग) हा० टी० ५० १४४ : महच्च तद्वतं च महावतं, महत्त्वं चास्य श्रावकसंबंध्यणुव्रतापेक्षयेति । (घ) अ० चू० पृ०८० : सकले महति वते महन्वते । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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