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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १३७ अध्ययन ४ : सूत्र ११ : टि० ४४-४६ करना । केवल जीवों को मारना ही अतिपात नहीं है, उनको किसी प्रकार का कष्ट देना भी प्राणातिपात है। पहले महाव्रत का स्वरूप है-प्राणातिपात-विरमण । विरमण का अर्थ है-ज्ञान और श्रद्धापूर्वक प्राणातिपात न करना-सम्यक् ज्ञान और श्रद्धापूर्वक उससे सर्वथा निवृत्त होना। ४४. सर्व ( सव्व) : __ मुनि कहता है-श्रावक व्रत ग्रहण करते समय प्राणातिपात की कुछ छूट रख लेता है उस तरह परिस्थर नहीं पर सर्व प्रकार के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ। सर्व अर्थात् निरवशेष - अर्द्ध या त्रिभाग नहीं । जैसे ब्राह्मण को नहीं मारूँगा-यह प्राणातिपात का देश त्याग है । 'मैं किसी प्राणी को मन-वचन-काया और कृत-कारित अनुमोदन रूप से नहीं मारूंगा'----यह सर्वप्राणातिपात का त्याग है । प्रत्याख्यान में 'प्रति' शब्द निषेध अर्थ में, 'आ' अभिमुख अर्थ में और 'ख्या' धातु कहने के अर्थ में है। उसका अर्थ है- प्रतीपअभिमुख कथन करना। 'प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं' अर्थात् प्राणातिपात के प्रतीप ---अभिमुख कथन करता हूँ--प्राणातिपात न करने की प्रतिज्ञा करता हूं । अथवा मैं संवृतात्मा वर्तमान में समता रखते हुए अनागत पाप के प्रतिषेध के लिये आदरपूर्वक--भावपूर्वक अभिधान करता है। साम्प्रतकाल में संवतात्मा अनागत काल में पाप न करने के लिये प्रत्याख्यान करता है-व्रतारोपण करता है। ४५. सूक्ष्म या स्थूल ( सुहुमं वा बायरं वा ) : जिस जीव की शरीर-अवगाहना अति अल्प होती है, उसे सूक्ष्म कहा है, और जिस जीव की शरीर-अवगाहना बड़ी होती है उसे बादर कहा है । सूक्ष्म नाम कर्मोदय के कारण जो जीव अत्यन्त सूक्ष्म है, उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है क्योंकि ऐसे जीव की अवगाहना इतनी सूक्ष्म होती है कि उसकी काया द्वारा हिंसा संभव नहीं। जो स्थूल दृष्टि से सूक्ष्म या स्थूल अवगाहना वाले जीव हैं, उन्हें ही यहाँ सूक्ष्म या बादर कहा है। ४६. त्रस या स्थावर ( तसं वा थावरं वा): जो सूक्ष्म और बादर जीव कहे गये हैं उनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं-बस और स्थावर । त्रस जीवों की परिभाषा पहले १-(क) अ० चू० पृ० ८० : पाणातिवाता [तो] अतिवातो हिसणं ततो, एसा पंचमी अपादाणे भयहेतुलक्खणा वा, भीतार्थानां भयहेतुरिति । (ख) जि० चू० पृ० १४६ : पाणाइवाओ नाम इंदिया आउप्पाणादिणो छब्बिहो पाणा य जेसि अत्यि ते पाणिणो भण्णंति, तेसि पाणाणमइवाओ, तेहिं पाणेहि सह विसंजोगकरणन्ति वुत्तं भवइ । (ग) हा० टी० ५० १४४ : प्राणा- इन्द्रियादयः तेषामतिपातः प्राणातिपात:-जीवस्य महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव । २-(क) अ० चू० पृ० ८० : वेरमणं नियत्तणं । (ख) जि० चू० पृ० १४६ : पाणाइवायवेरमणं नाम नाउं सद्दहिऊण पाणातिवायस्स अकरणं भण्णइ । (ग) हा० टी०प० १४४ : विरमणं नाम सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनम् । ३- (क) अ० चू० पृ०८० : सवं ण विसेसेण, यथा लोके-न ब्राह्मणो हन्तव्यः । (ख) जि. चू०प०१४६ : सव्वं नाम तमेरिसं पाणाइवायं सव्वं–निरवसेसं पच्चक्खामि नो अद्ध तिभागं वा पच्चक्खामि । (ग) हा० टी० ५० १४४ । सर्वमिति-निरवशेषं, न तु परिस्थूरमेव। ४- (क) अ० चू० पृ०८० : पाणातिवातमिति व पच्चक्खाणं, ततो नियत्तणं । (ख) जि० चू० पृ० १४६ : संपइकालं संवरियप्पणो अणागते अकरणणिमित्त' पच्चक्खाणं । (ग) हा० टी० ५० १४४-४५ : प्रत्याख्यामी त प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आङाभिमुख्ये ख्या प्रकथने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं प्राणाति पातस्य करोमि प्रत्याख्यामीति, अथवा-प्रत्याचक्षे - संवृतात्मा साम्प्रतमनागतप्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः। ५-- (क) अ० चू. १०८१ : सुहमं अतीव अप्पसरीरं तं वा, वातं रातीति 'वातरो' महासरीरो तं वा । (ख) जि० चू०पू० १४६ : सुहुमं नाम जं सरीरावगाहणाए सुट्ठ अप्पमिति, बादरं नाम थूलं भण्णइ। (ग) हा० टी०प० १४५ : अत्र सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मः, तस्य कायेन व्यापादनासंभवात्..."बादरो पि स्थूरः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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