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दसवेआलियं ( दशवेकालिक )
३४. तीन करण तीन योग से ( तिविहं तिविहेणं ) :
क्रिया के तीन प्रकार हैं- करना, कराना और अनुमोदन करना। इन्हें योग कहा जाता है । त्रिया के साधन भी तीन होते हैंमन, वाणी और शरीर । इन्हें करण कहा जाता है । स्थानांग में इन्हें योग, प्रयोग और करण कहा है।"
हरिभद्रसूरि ने 'विविध' से कृत, कारित और अनुमति का तथा 'त्रिविधेन' से मन, वाणी और शरीर इन तीन करणों का ग्रहण किया है । यहाँ अगस्त्यसिंह मुनि की परम्परा दूसरी है । वे 'तिविहं' से मन, वाणी और शरीर का तथा 'तिविहेणं' से कृत, कारित और अनुमति का ग्रहण करते हैं । इसके अनुसार कृत, कारित और अनुमोदन को करण तथा मन, वाणी और शरीर को योग कहा जाता है । आगम की भाषा में योग का अर्थ है-मन, वाणी और शरीर का कर्म । साधारण दृष्टि से यह किया है किन्तु जितना भी किया जाता है, कराया जाता है और अनुमोदन किया जाता है उसका साधन मन, वाणी और शरीर ही है । इस दृष्टि से इन्हें करण भी कहा जा सकता है। जहाँ त्रिया और त्रिया के हेतु की अभेद-विवक्षा हो वहाँ ये क्रिया या योग कहलाते हैं और जहाँ उनकी भेद-विवक्षा हो वहाँ ये करण कहलाते हैं । इसलिए इन्हें कहीं योग और कहीं करण कहा गया है ।
३५. मन से, वचन से, काया से ( मणेणं वायए काएणं ) :
मन, वचन और काया –कृत, कारित और अनुमोदन - इनके योग से हिंसा के नौ विकल्प बनते हैं । अगस्त्यसिह स्थविर ने उन्हें इस प्रकार स्पष्ट किया है
जो दूसरे को मारने के लिए सोचे कि मैं इसे कैसे मारूँ ? वह मन के द्वारा हिंसा करता है। वह इसे मार डाले - ऐसा सोचना मन के द्वारा हिंसा कराना है। कोई किसी को मार रहा हो - उसने सन्तुष्ट होना - राजी होना मन के द्वारा हिंसा का अनुमोदन है । वैसा बोलना जिससे कोई दूसरा मर जाए – वचन से हिंसा करना है। किसी को मारने का आदेश देना वचन से हिंसा कराना है । अच्छा मारा यह कहना वचन से हिंसा का अनुमोदन है ।
स्वयं किसी को मारे-यह कायिक हिंसा है। हाथ आदि से किसी को
मरवाने का संकेत करना काया से हिंसा कराना है । कोई किसी को मारे उसकी शारीरिक संकेतों से प्रशंसा करना- -काय से हिंसा का अनुमोदन है ।
'मणेणं... ...न समरगुजाणामि' इन शब्दों में शिष्य कहता है - मैं मन, वचन, काया से पट्-जीवनिकाय के जीवों के प्रति दंड-समारंभ नहीं करूँगा, नहीं कराऊँगा" और न करने वाले का अनुमोदन करूँगा ।
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१-ठा० ३.१३-१५ :
तिविहे जोगे-- मणजोगे, वतिजोगे, कायजोगे । तिविहे पओगे मणपओगे, वतिपओगे, कायपओगे 1 तिविहे करणे मणकरणे, वतिकरणे, कायकरणे 1
२- हा० टी० प० १४३ : 'त्रिविधं त्रिविधेने ति तिस्रो विधा विधानानि कृतादिरूपा अस्येति त्रिविधः, दण्ड इति गम्यते, तं त्रिविधेन करणेन, एतदुपन्यस्यति मनसा वाचा कायेन ।
३- अ० ० पृ० ७८ तिविहंति मणो वयण-कातो तिविहेणं ति करण-कारावणा अणुमोपणाणि ।
अध्ययन ४ : सूत्र १० टि० ३४-३५
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४ भगवती जोड़ श० १५ दु० १११-११२ : अथवा तिविहेणं तिकी, त्रिविध त्रिभेदे शुद्ध ।
करण करावण अनुमत, द्वितीय अर्थ अनिरुद्ध | त्रिकरण शुद्ध णं कह्यौ, मन, वच, काया जोय । ए तीनूई जोग तसूं, शुद्ध करो अवलोय ॥
५ -- (क) अ० चू० पृ० ७८ : मणेण दंडं करेति-सयं मारणं चिन्तयति कहमद्दं मारेज्जामि, मणेण कारयति जदि एसो मारेज्जा, मणसा अणुमोदति मारेंतस्स तुस्सति वायाए पाणातिवातं करेति तं भणति जेण अद्धितीए मरति, वायाए
कारेति – मारणं संदिसति वायाए अणुमोदति - सुटठु हतो; कातेण मारेति सयमाहणति काएण कारयति पाणिप्पहारादिणा कारणाणुमोदति मारते हो डकादिना पसंसति ।
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(ख) जि० चू० पू० १४२-१४३ : सयं मणसा न चितयइ जहा वह्यामित्ति, वायाएव न एवं भणइ जहा एस वहेज्जउ, कायण सय न परिहणति, अन्नस्सवि णेत्तादीहिं णो तारिसं भावं दरिसयइ जहा परो तस्स माणसियं पाऊण सत्तोवद्यायं करेइ, यायाव संदेस न दे जहा तं पाहिति कावि गो हत्यादिना सोई जहा एवं मारवाहि पापि अयंद मणसा तुट्टि न करेइ, बायाएवि पुच्छिओ संतो अनुमइ' न देइ, काएणावि परेण पुच्छिओ संतो हत्थुक्खेवं न करेइ । ६ - हा० टी० प० १४३ : मनसा वाचा कायेन, एतेषां स्वरूपं प्रसिद्धमेव, अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दण्डः ।
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