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छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका )
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अध्ययन ४ : सूत्र १० टि० ३२-३३ अगस्त्यसिंह के अनुसार प्रस्तुत प्रकरण में 'इति' शब्द का प्रयोग 'प्रकार' अथवा 'हेतु' के अर्थ में हुआ है । जिनदास महत्तर के अनुसार उसका प्रयोग उप-प्रदर्शन के अर्थ में और हरिभद्र सूरि के अनुसार हेतु के अर्थ में हुआ है।
'इच्चेतेहि छहिं जीवनिकाएहि' अगस्त्यसिंह स्थविर ने यहाँ सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति मानी है। टीकाकार को 'इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं' यह पाठ अभिमत है और उनके अनुसार यहाँ सप्तमी विभक्ति के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है। ३२. दंड-समारम्भ ( दंडं समारंभेज्जा):
अगस्त्य चुणि में 'दंड' का अर्थ शरीर आदि का निग्रह--दमन करना किया है। जिनदास चुणि और टीका में इसका अर्थ संघट्टन, परितापन आदि किया है। कौटिल्य ने इसके तीन अर्थ किए हैं : वध प्राणहरण, परिक्लेश बन्धन, ताड़ना आदि से क्लेश उत्पन्न करना और अर्थ-हरण-धनापहरण ।
_ 'दण्ड' शब्द का अर्थ यहाँ बहुत ही व्यापक है । मन, वचन और काया की कोई भी प्रवृत्ति जो दुःख-जनक या परिताप-जनक हो वह दण्ड शब्द के अन्तर्गत है । समारम्भ का अर्थ है करना। ३३. यावज्जीवन के लिए (जावज्जीवाए)
'यावज्जीवन' अर्थात् जीवन-भर के लिए । जब तक शरीर में प्राण रहे उस समय तक के लिए। हरिभद्र सूरि के अनुसार 'इच्चेसि ......न समण जाणेज्जा' तक के शब्द आचार्य के हैं । जिनदास महत्तर के अनुसार 'इच्चेसि......तिविहं तिबिहेणं' तक के शब्द आचार्य के हैं।
१-(क) अ० ५० ५० ७८ : इतिसद्दो अगत्थो अस्थि, हेतौ-वरिसतीति धावति, एवमत्थो - इति 'ब्रह्मवादिनो' वदंति,
आद्यर्थे- इत्याह भगवां नास्तिकः, परिसमाप्तौ-अ अ इति, प्रकारे-इति बहुविह-मुक्खा । इह इतिसद्दो प्रकारे--- पुढविक्कातियादिसु किन्हमट्टितादिप्रकारेसु, अहवा हेतौ-जम्हा परधम्मिया सुहसाया दुःखपडिकूला। 'इच्चेतेसु',
एतेसु अणंतराणुलकंतं पच्चक्खमुपदंसिज्जति । (ख) जि. चू० पृ० १४२ : इतिसद्दो अणेगेसु अत्थेसु बट्टइ, तं -आमंतणे परिसमत्तीए उबप्पदरिसणे य, आमलणे जहा धम्म
एति वा उवएसएति वा एवमादी, परिसमत्तीए जहा इति खलु समणे भगवं ! महावीरे' एयमादी, उबप्पदरिसणे जहा 'इच्चेए पंचविहे बवहारे' एत्थ पुण इच्चेतेहिं एसो सद्दो उवप्पदरिसणे दढब्बो, कि उवप्पदरिसति ?, जे एते जीवाभि
गमस्स छ भेया भणिया। (ग) हा० टी० ५० १४३ : 'इच्चेसि' इत्यादि, सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनेन हेतुना । २-अ० चू० पृ० ७८ : हिंसद्दो सप्तम्यर्थतेव । ३-(क) अ० चू० पृ० ७८ : 'एतेहि हि जीवनिकाएहि ।
(ख) हा० टी० ५० १४३ : ‘एतेषां षण्णां जीवनिकायाना' मिति, सुपां सुपो भवन्तीति सप्तम्यर्थे षष्ठी। ४-अ० चू० पृ० ७८ : दंडोसरीरादिनिग्गहो। ५--जि० चू० पृ० १४२ : दंडो संघट्टणपरितावणादि । ६-हा० टी० ५० १४३ : 'दण्ड' संघट्टनपरितापनादिलक्षणम् । ७-कौटिलीय अर्थ० २.१०.२८ : वधःपरिक्लेशोऽर्थहरणं दण्ड इति (व्याख्या)-वधो व्यापादन, परिक्लेशो बन्धनताडनादिभिर्दुःखो
त्पादनम्, अर्थ-हरणं धनापहारः, इदं त्रयं दण्डः । ८-(क) अ० चू० पृ० ७८ : असमारंभकालावधारणमिदम् -- 'जावज्जीवाए' जाव पाणा धारंति । (ख) जि० चू० पृ० १४२ : सीसो भणइ-केचिरं कालं ?, आयरिओ भणइ-जावजीवाए, ण उ जहा लोइयाणं विन्नवओ
होऊण पच्छा पडिसेवइ, किन्तु अम्हाणं जावजीवाए बट्टति । (ग) हा० टी० ५० १४३ : जीवनं जीवा यावज्जीवा यावज्जीवम् ---अप्राणोपरमात् । -हा० टी०प० १४३ : 'न समनुजानीयात्' नानुमोदयेदिति विधायकं भगवद्व वनम् । १०-जि० चू० १० १४२-४३ : आयरिओ भणइ-जावजीवाए......तिविहं तिविहेणं'ति सयं मणसान चितयइ....."हत्थुक्खेवं
न करे।
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