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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन ४ : सूत्र १० टि० ३१
स्वभाव । परम जिनका धर्म है अर्थात् सुख जिनका स्वभाव है वे परम-धार्मिक कहलाते हैं। दोनों चूणियों में 'पर-धम्मिता' ऐसा पाठान्तर है। एक जीव से दूसरा जीव 'पर' होता है। जो एक का धर्म है वही पर का है --दूसरे का है । सुख की जो अभिलाषा एक जीव में है वही पर में है— शेष सब जीवों में है । इस दृष्टि से जीवों को 'पर-धार्मिक' कहा जाता है।
धूर्णिकार 'सव्वे' शब्द के द्वारा केवल त्रस जीवों का ग्रहण करते हैं। किन्तु टीकाकार उसे त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों का संग्राहक मानते हैं।
___ सुख की अभिलाषा प्राणी का सामान्य लक्षण है। त्रस और स्थावर सभी जीव सुखाकांक्षी होते हैं। इसलिए 'परमाहम्मिया' केवल वस जीवों का ही विशेषण क्यों ? यह प्रश्न होता है । टीकाकार इसे त्रस और स्थावर दोनों का विशेषण मान उक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं । किन्तु वहाँ एक दूसरा प्रश्न और खड़ा हो जाता है। वह यह है-प्रस्तुत सूत्र में बस जीवनिकाय का निरूपण है। इसमें बस जीवों के लक्षण और प्रकार बतलाए गए हैं। इसलिए यहाँ स्थावर का संग्रहण प्रासंगिक नहीं लगता। इन दोनों बाधाओं को पार करने का एक तीसरा मार्ग है । उसके अनुसार 'पाणा परमाहम्मिया' का अर्थ वह नहीं होता, जो चूर्णिकार और टीकाकार ने किया है । यहाँ 'पाणा' शब्द का अर्थ मातंग और 'परमाहम्मिया' का अर्थ परमाधार्मिक देव होना चाहिए। जिस प्रकार तिर्यग-योनिक, नैरयिक, मनुष्य और देव ये वस जीवों के प्रकार बतलाये हैं, उसी प्रकार परमाधार्मिक भी उन्हीं का एक प्रकार है। परमाधार्मिकों का शेष सब जीवों से पृथक् उल्लेख आवश्यक' और उत्तराध्ययन आगम में मिलता है। बहुत संभव है यहां भी उनका और सब जीवों से पृथक् उल्लेख किया गया हो। 'पाणा परमाहम्मिया' का उक्त अर्थ करने पर इसका अनुवाद और पूर्वापर संगति इस प्रकार होगी-सब मनुष्य और सब मातंग स्थानीय परमाधार्मिक हैं--वे बस हैं।
सूत्र १० : ३१. इन (इच्चेसि):
'इति' शब्द का व्यवहार अनेक अर्थों में होता है। प्रस्तुत व्याख्याओं में प्राप्त अर्थ ये हैं ... हेतु ... वर्षा हो रही है इसलिए दौड़ रहा है । इस प्रकार--ब्रह्मवादी इस प्रकार कहते हैं । आमंत्रण -- 'धम्मएति' हे धार्मिक, 'उबएसएति' हे उपदेशक ! परिसमाप्ति ---इति खलु समणे भगवं महावीरे। प्रकार । उप-प्रदर्शन--पूर्व वृत्तान्त या पुरावृत्त को बताने के लिए - - इच्चेये पंचविहे ववहारे-ये पाँच प्रकार के व्यवहार हैं।
१...- (क) अ० चू० पृ० ७७ : सब्वेपाणा ‘परमाहम्मिया' । परमं पहाणं, तं च सुहं । अपरमं ऊणं तं पुण दुक्खं । धम्मो सभावो ।
परमो धम्मो जेसि ते परमधम्मिता। यदुक्तम्---सुखस्वभावाः । (ख) जि० चू० पृ १४१ : परमाहम्मिया नाम अपरमं दुक्खं परमं सुहं भण्णई, सब्वे पाणा परमाधम्मिया-सुहाभिक
खिणोत्ति वुत्तं भवई। (ग) हा० टी० ५० १४२ : परमधर्माण इति—अत्र परमं - सुखं तद्धर्माणः सुखधर्माणः -- सुखाभिलाषिण इत्यर्थः । २-(क) अ० चू० पू० ७७ : पाठविसेसो परधम्मिता-परा जाति जाति पडुच्च सेसा–जो त परेसि धम्मो सो तेसिं, जहा
एगस्स अभिलासप्रीतिप्पभितीणि संभवंति तहा सेसाण वि अतो परधम्मिता। (ख) जि० ० पृ० १४१ : अहवा एयं सुत्तं एवं पढिज्जइ 'सव्वे पाणा परधम्मिता' इक्किक्कस्स जीवस्स सेसा जीवसेदा परा,
ते य सव्वे सुहाभिकंखिणोत्ति वुत्तं भवति, जो तेसि एक्कस्स धम्मो सो सेसाणंपित्तिकाऊण सव्वे पाणा परमाहम्मिया। ३—(क) जि० चू० पृ० १४१ : सव्वे तसा भवंति ।
(ख) हा० टी० प० १४२ : 'सर्वे प्राणिनः परमधर्माण' इति सर्व एते प्राणिनी ---द्वीन्द्रियादयः पृथिव्यादयश्च । ४--पाइ० ना० १०५ : मायंगा तह जणंगमापाणा। ५-सम० १५ टीका प० २६ : तत्र परमाश्च तेऽधार्मिकाश्च संक्लिष्टपरिणामत्वात्परमाधामिका:-असुरविशेषाः । ६-आव० ४.६ : चउद्दसहि भूय-गामेहि, पन्नरसहि परमाहम्मिएहि । ७-उत्त० ३१.१२ : किरियासु भूयगामेसु, परमाहम्मिएसु य।
जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥
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