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छज्जीवणिया (षड्जीवनिका)
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अध्ययन ४: सूत्र ६ टि० २८-३० बढ़ने या फैलने की क्रिया। जो जीव गर्भ के बिना उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं और फैलते हैं वे 'सम्मूछेनज' या सम्मच्छिम कहलाते हैं । वनस्पति जीवों के सभी प्रकार सम्मूच्छिम' होते हैं। फिर भी उत्पादक अवयवों के विवक्षा-भेद से केवल उन्हीं को सम्मूच्छिम कहा गया है जिनका बीज प्रसिद्ध न हो और जो पृथ्वी, पानी और स्नेह के उचित योग से उत्पन्न होते हों।
इसी प्रकार रसज, संस्वेदज और उद्भिज ये सभी प्राणी 'सम्मूच्छिम' हैं। फिर भी उत्पत्ति की विशेष सामग्री को ध्यान में रख कर इन्हें 'सम्भूच्छिम' से पृथक् माना गया है । चार इन्द्रिय तक के सभी जीव सम्मूच्छिम ही होते हैं और पञ्चेन्द्रिय जीव भी सम्मच्छिम होते हैं। इसकी योनि पृथक-पृथक होती है जैसे पानी की योनि पवन है, घास की यो नि पृथ्वी और पानी है। इसमें कई जीव स्वतंत्र भाव से उत्पन्न होते हैं और कई अपनी जाति के पूर्वोत्पन्न जीवों के संसर्ग से । ये संसर्ग से उत्पन्न होने वाले जीव गर्भज समझे जाते हैं। किन्तु वास्तव में गर्भज नहीं होते। उन में गर्भज जीव का लक्षण –मानसिक ज्ञान नहीं मिलता। सम्मूच्छिम और गर्भज जीवों में भेद करने वाला मन है। जिनके मन होता है वे गर्भज और जिनके मन नहीं होता वे सम्मूच्छिम होते हैं। २८. उद्भिज ( उभिया):
पृथ्वी को भेदकर उत्पन्न होने वाले पतंग, खजरीट (शरद् ऋतु से शीतकाल तक दिखाई देने वाला एक प्रसिद्ध पक्षी) आदि उद्भिज्ज या उद्भिज कहलाते हैं ।
छान्दोग्य उपनिषद् में पक्षी आदि भूतों के तीन बीज माने हैं -अण्डज, जीवज और उद्भिज्ज। शाङ्कर भाष्य में 'जीवज' का अर्थ जरायुज किया है। स्वेदज और संशोकज का यथासम्भव अण्डज और उद्भिज्ज में अन्तर्भाव किया है । उद्भिज्ज —जो पृथ्वी को ऊपर की ओर भेदन करता है उसे उद्भिद् यानी स्थावर कहते हैं, उससे उत्पन्न हुए का नाम उद्भिज्ज है, अथवा धाना (बीज) उद्भिद् है उससे उत्पन्न हुआ उद्भिज्ज स्थावर बीज अर्थात् स्थावरों का बीज है।
ऊष्मा से उत्पन्न होने वाले बीजों को संशोकज माना गया है । जैन-दृष्टि से इसका सम्मूच्छिम में अन्तर्भाव हो सकता है। २६. औपपातिक ( उववाइया ) :
उपपात का अर्थ है - अचानक घटित होने वाली घटना । देवता और नारकीय जीव एक मुहुर्त के भीतर ही पूर्ण युवा बन जाते हैं इसीलिए इन्हें औपपातिक - अकस्मात् उत्पन्न होने वाला कहा जाता है। इनके मन होता है इसलिए ये सम्मूच्छिम नहीं हैं। इनके माता-पिता नहीं होते इसलिए ये गर्भज भी नहीं हैं। इनकी औत्पत्तिक-योग्यता पूर्वोक्त सभी से भिन्न है इसलिए इनकी जन्म-पद्धति को स्वतंत्र नाम दिया गया है।
ऊपर में वर्णित पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक पर्यंत जीव स्थावर कहलाते हैं।
त्रस जीवों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है। जन्म के प्रकार की दृष्टि से जो वर्गीकरण होता है वही अण्डज आदि रूप हैं। ३०. सब प्राणी सुख के इच्छुक हैं ( सव्वे पाणा परमाहम्मिया ) :
'परम' का अर्थ प्रधान है। जो प्रधान है वह सुख है । 'अपरम' का अर्थ है न्यून । जो न्यून है वह दुःख है । 'धर्म' का अर्थ है
१-(क) अ० चू० पृ० ७७ : 'उब्भिता' भूमि मिदिऊण निद्धावति सलभादयो।
(ख) जि० चू० पृ० १४० : उब्भिया नाम भूमि भेत्तूणं पंखालया सत्ता उप्पज्जति । (ग) हा० टी० ५० १४१ : उद्भेदाज्जन्म येषां ते उभेदाः, अथवा उभेदनमुद्भित् उद्भिज्जन्म येषां ते उद्भिज्जाः- पतङ्ग
___ खञ्जरीटपारिप्लवादयः । २-छान्दो० ६.३.१ : तेषां खल्वेषां भूतानां त्रीण्येव बीजानि भवन्त्यण्डजं जीवजमुद्धिज्जमिति । ३--वही, शाङ्कर भाष्य-जीवाज्जातं जीवजं जरायुजमित्येतत्पुरुषपश्वादि । ४- वही, स्वेदजसंशोकजयोरण्डजोद्भिज्जयोरेव यथासंभवमन्तर्भावः । ५-वही, उद्भिज्जमुद्भिनत्तीत्युद्भित्स्थावरं ततो जातमुद्भिज्जधानावोद्धित्त तो जायत इत्युद्भिज्जं स्थावरबीजं स्थावराणां
बीजमित्यर्थः"। ६-(क) अ० चू० पृ० ७७ : 'उववातिया' नारग-देवा।
(ख) जि० चू० पृ० १४० : उववाइया नाम नारगदेवा । (ग) हा० टी०प०१४१ : उपपाताज्जाता उपपातजाः अथवा उपपाते भवा औपपातिका–देवा नारकाश्च ।
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