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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) १२८ 1 अध्ययन ४ : सूत्र ६ टि० २२-२७ बस दो प्रकार के होते हैं लब्धि त्रस और गति त्रस जिन जीवों में साभिप्राय गति करने की शक्ति होती है वे लब्धि- त्रस होते हैं और जिनमें अभिप्रायपूर्वक गति नहीं होती, केवल गति मात्र होती है, वे गति त्रम कहलाते हैं। अग्नि और बाउ को सूत्रों में त्रस कहा है पर वे गतिम हैं। जिन्हें उदार त्रस प्राणी कहा है ये सब्धि त्रस है । प्रस्तुत सूत्र में त्रस के जो लक्षण बतलाए हैं वे लब्धि-स के हैं। २२. अण्डज ( अंडया ) : अण्डों से उत्पन्न होने वाले मयुर आदि अण्डज कहलाते हैं । २३. पोतज ( पोयया ) : 'पोत' का अर्थ शिशु है। जो शिशुरूप में उत्पन्न होते हैं, जिन पर कोई आवरण लिपटा हुआ नहीं होता, वे पोतज कहलाते हैं। हाथी, चर्म- जलौका आदि पोतज प्राणी है । २४. जरायुज ( जराश्या ) जन्म के समय में जो जरायु-वेष्टित दशा में उत्पन्न होते हैं वे जरायुज कहलाते हैं। भैंस, गाय आदि इसी रूप में उत्पन्न होते है जरायु का अर्थ गर्भ-वेष्टन या वही है जो की आवृत किए रहती है। २५. रसज ( रसया ) : छाछ, दही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म शरीरी जीव रसज कहलाते हैं । २६. संस्वेदज ( संसेइमा ) : पसीने से उत्पन्न होने वाले खटमल युका - जूं आदि जीव संस्वेदज कहलाते हैं । २७. सम्मुन सम्मा): बाहरी वातावरण के संयोग से उत्पन्न होने वाले शलभ, चींटी, मक्खी आदि जीव सम्मूच्छेनज कहलाते हैं। सम्मूच्छिम मातृपितृहीन प्रजनन है । यह सर्दी, गर्मी आदि बाहरी कारणों का संयोग गाकर उत्पन्न होता है । सम्मूच्छेन का शाब्दिक अर्थ है - घना होने, १---ठा० ३.३२६ : तिविहा तसा प० सं० तेउकाइया वाउकाइया उराला तसा पाणा । २ (क) अ० ० पृ० ७७: अण्डजाता 'अण्डजा' मयूरादयः । (ख) जि० चू० पृ० १३६ : अंडसंभवा अंडजा जहा हंसमयूरायिणो । पक्षिगृहकोकिलादयः । (ग) हा० डी० १० १४१ ३ - - (क) अ० चू० पृ० ७७ : (ख) जि० चू० पृ० १३६ (ग) हा० टी० प० १४१ ४ पोतमिव सूयते 'पोतजा' वल्गुलीमादयः । पोतया नाम वग्गुलीमाइणो । पोता एव जायन्त इति पोतजाः - (क) अ० चू० पृ० (ख) जि० चू० पृ० (ग) हा० टी० प० ५ (क) अ० चू० पृ० ७७ (ख) जि० चू० पृ० १४० (ग) हा० टी० प० १४१ ६ (क) अ० चू० पृ० ७७: 'संस्वेदजा' यूगादतः । (ख) जि० खू० पृ० १४०: (ग) हा० टी० १० १४१ ७- (क) ५० पू० पृ० ७७ (ख) जि० ० चू० पृ० १४० (च) हा० डॉ० पं० १४१ : Jain Education International ७७: जराउवेढिता जायंती 'जराउजा ' गवादयः । १३६-४० : जराउया नाम जे जरवेढिया जायंति जहा गोमहिसादि । १४१: जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजा - गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः । ते च हस्तीवल्गुलीचमंजलोकाप्रभृतयः । रसा ते भवंति रसजा, तत्रादौ सुहुमसरीरा । रसया नाम तक्कंबिलमाइसु भवंति । रसाज्जाता रसजा:- तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति । संसेयणा नाम जुयादी । संस्वेदान्ता इति संस्वेदजामत्कुणयुकाशतपदिकादयः । सम्मुखमा कसरि मच्छिकादतो भवति । समुच्छिमा नाम करीसादिसमुच्छिया । गाज्जाता संमूर्च्छनाइलन पिपीलिकामक्षिकाशाकादयः । - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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