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छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका )
१७. सम्मूच्छिम ( सम्मुद्धिमा)
पद्मिनी, तृण आदि जो प्रसिद्ध बीज के बिना केवल पृथ्वी, पानी आदि कारणों को प्राप्त कर उत्पन्न होते हैं ये 'सम्मूण्टिम' कहलाते हैं। सम्मूमि नहीं होते हैं ऐसी बात नहीं है वे दग्य भूमि में भी उत्पन्न हो जाते हैं।
१८. तृण ( तण ) :
घास मात्र को तृण कहा जाता है। दूब, काश, नागरमोथा, कुश अथवा दर्भ, उशीर आदि प्रसिद्ध घास हैं । 'तृग' शब्द के द्वारा सभी प्रकार के तृणों का ग्रहण किया गया है।
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१६. लता ( लया ) :
पृथ्वी पर या किसी बड़े वृक्ष पर लिपटकर ऊपर फैलने वाले पौधे को लता कहा जाता है। 'लता' शब्द के द्वारा सभी लताओं का ग्रहण किया गया है ।
२०. बीजपर्यन्त (सबीया )
,
वनस्पति के दस प्रकार होते हैं मूल, कन्द, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज । मूल की अंतिम परिणति बीज में होती है इसलिए 'स-बीज' शब्द वनस्पति के इन दसों प्रकारों का संग्राहक है ।
इसी सूत्र (८.२ ) में 'सबीयग' शब्द के द्वारा वनस्पति के इन्हीं दस भेदों को ग्रहण किया गया है ।
शीलाङ्कसूरि ने 'सबीयग' शब्द के द्वारा केवल 'अनाज' का ग्रहण किया है ।
सूत्र ९ :
२१. अनेक बहु प्रस प्राणी ( अगे बहवे तसा पाणा )
यस जीवों की द्वीन्द्रिय आदि अनेक जातियां होती हैं और प्रत्येक जाति में बहुत प्रकार के जीव होते हैं इसलिए उनके पीछे 'अनेक' और 'वह'- ये दो विशेष प्रयुक्त किए हैं। इनमें उच्छवासादि विद्यमान होते हैं अतः ये प्राणी कहलाते है।
२- जि०
अध्ययन ४ सूत्र ९ टि० १७-२१
१ (क) अ० ० ० ७५ परमिणिमादी उदगडविसिनेहसंमुच्छणा समुच्छिमा
(ख) जि० पू० पृ० १३
मा नाम जे विणा वीण पुढविवरिसादीनि कारणानि पप्प उट्ठति ।
(ग) हा० टी० प० १४० : संमूर्च्छन्तीति संमूच्छिमाः - प्रसिद्ध बीजाभावेन पृथिवीवर्षादिसमुद्भवास्तथाविधास्तृणादयः, न न संभवन्ति, दग्धभूमावपि संभवात् ।
० चू० पृ० १३८ : तत्थ तणग्गणेण तणभेया गहिया ।
जि० ० चू० पृ० १३८ : लतागहणेण लताभेदा गहिया । ४ – (क) जि०
० चू० पृ०
(ख) अ० चू० पृ० ५० ० ० २७४
७५: सबीया इति बीयावसाणा दस वनस्सतिभेदा संगहतो दरिसिता ।
सीय मूलकन्दादिबीयप जनसागरस पुस्वभरि सपगारस्स बफतिणो गहणं ।
६-- सू० १.६.८ टी० प० १७६ : 'पुढवी उ अगणी वाऊ, तणरुषख सबीयगा' सह बीजवर्तन्त इति सबीजा:, बीजानि तु शालिगोधूमयवादीनि ।
१३८ : सबियग्गहणेण एतस्स चेव वणस्सइकाइयस्स बीयपज्जवसाणा दस भेदा गहिया भवंति - तं जहा
मूले कंदे खंधे तथा य साले तहृप्पवाले य ।
पत्ते पुष्के य फले बीए दसमे व नायव्वा ॥
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७ – (क) अ० ० पृ० ७७ : 'अणेगा' अनेग भेदा बेइन्दियादतो। 'बहवे' इति बहुभेदा जाति-कुलकोडि-जोणी-प मुहसत सहस्से ह पुणरवि संखेज्जा ।
(ख) जि० चू० पृ० १३६ : अणेगे नाम एक्कंमि चेव जातिभेदे असंखेज्जा जीवा इति । (ग) हा० टी० ० १४१ धकेन्द्रियादिभेदेन बहवः एकैकस्यां जाती।
८ (क) अ० चू० पृ० ७७: 'पाणा' इति जीवाः प्राणंति वा निःश्वसंति वा ।
(ख) हा० टी० प० १४१: प्राणा-उच्छ्वासादय एषां विद्यन्त इति प्राणिनः ।
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