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दसवेलियं ( दशवेकालिक )
१२६ अध्ययन ४ : सूत्र ८ टि०१६ जीवों में स्वरूप की सत्ता है। वे किसी एक ही महान् आत्मा के अवयव नहीं हैं, उनका स्वतन्त्र अस्तित्व है इसीलिए वे पृथक्सत्त्व हैं । जिनमें पृथकुभूत सत्व आत्मा हो उन्हें कहते हैं इनको अवगाहना इतनी सूक्ष्म होती है कि अंगुल के असंख्य भाग मात्र में अनेक जीव समा जाते हैं । यदि इन्हें सिलादि पर बांटा जाय तो कुछ पिसते हैं कुछ नहीं पिसते । इससे इनका पृथक् सत्त्व सिद्ध होता है ।"
मुक्तिवाद और मितात्मवाद – ये दोनों आपस में टकराते हैं। आत्मा परिमित होगी तो या तो मुक्त आत्माओं को फिर से जन्म लेना होगा या संसार जीव-शून्य हो जाएगा । ये दोनों प्रमाण संगत नहीं हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने इसे काव्य की भाषा में यों गाया है
"मुक्तोऽपि वाभ्येतु भवं भवो वा, भवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे | पजीय कार्य
स्वमनन्तसंख्य
माख्यस्तथा नाथ यथा न दोषः " ॥"
१६. अप्र-बीज (अग्गबीया )
वनस्पति के भिन्न-भिन्न भेद उत्पत्ति की भिन्नता के आधार पर किये गए हैं । उनके उत्पादक भाग को बीज कहा जाता है । वे विभिन्न होते हैं। 'कोरंटक' आदि के बीज उनके अग्र भाग होते हैं इसीलिए वे अग्रबीज कहलाते हैं । उत्पल कंद आदि के मूल ही उनके बीज हैं इसलिए वे मूलबीज कहलाते हैं। इक्षु आदि के पर्व ही बीज हैं इसलिए वे 'पर्वबीज' कहलाते है । थूहर अश्वस्थ, कपित्थ (व) आदि के स्कंध ही बीज है इसलिए कंपनी का शानि गेहूं आदि मूल बीजरूप में ही हैं। वे 'बीज' कहलाते हैं।
सूत्र ८ :
१- (क) जि० चू० पृ० १३६ पुढो सत्ता नाम पुढविक्कमोदएण सिलेसेण वट्टिया वट्टी पिहप्पिह चडवत्थियत्ति वृत्तं भवइ । (ख) हा० डी० ए० १२८ अंगुलाये भागमात्रायाना पारमाविश्याऽनेकजीवसमाथितेति भावः ।
२ अन्ययोगव्याधिशिका इलो० २४ ।
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३ - ( क ) अ० चू० पृ० ७५ : कोरेंटगादीणि अग्गाणि रूप्पति ते अग्गबीता ।
(ख) जि० चू० पृ० १३८ अग्गजीया नाम अगं बीयाणि जेसि ते अग्गबीया जहा कोरेंटगादी, तेसि अग्गाणि रूप्पंति ।
(ग) हा० टी० प० १३६ : अग्र बीजं येषां ते अग्रबीजा: कोरण्टकादयः ।
४ – (क) अ० चू० पृ० ७५ : कंदलिकंदादि मूलबीया ।
(ख) जि० चू० पृ० १३८ : मूलबीया नाम उपलकंदादी ।
(ग) हा० टी० प० १३६ मूलं बीजं येषां ते मूलबीज- - उत्पलकंदादयः ।
५ -- ( क ) अ० चू० पृ० ७५ : इक्खुमादि पोरबीया ।
(ख) जि०० पू० १३८ पोरबीया नाम उमादी
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(ग) हा० टी० प० १३६ : पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजा - इक्ष्वादयः ।
६ - ( क ) अ० चू० पृ० ७५ णिहूमादी खंधवीया ।
(ख) जि० ० ० १३८ संथवीपा नाम अस्सोत्थकविलानिमायी । (ग) हा० टी० प० १३६ : स्कंधो बीजं येषां ते स्कंधबीजाः – शल्लक्यादयः ।
७ (क) अ० चू० पृ० ७५: सालिमादी बीयरुहा ।
(च) ० ० ० १३८ बीरा नाम सालीजीहीमादी।
(ग) हा० टी० ५० १३६ : बीजाद्रोहन्तीति बीजरुहाः - शाल्यादयः ।
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