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छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका )
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अध्ययन ४: सूत्र ४ टि० १५ अल्प- विकसित है। उसमें उच्छवास, निमेष आदि जीव के व्यक्त चिह्न नहीं हैं।
'मत्त' का अर्थ मुच्छित भी किया है। जिस प्रकार चित्त के विघातक कारणों से अभिभूत मनुष्य का चित भूच्छित हो जाता है वैसे ही ज्ञानावरण के प्रबलतम उदय से (टीकाकार के अनुसार प्रबल मोह के उदय से) पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों का चैतन्य सदा मूच्छित रहता है । इनके चैतन्य का विकास न्यूनतम होता है।
द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यच व समूच्छिम मनुष्य, गर्भज-तिर्यञ्च, गर्भज-मनुष्य, वाणव्यन्तर देव, भवनवासी देव, ज्योतिष्क-देव और वैमानिक-देव (कल्पोपपन्न, कल्पातीत, ग्रंबेयक और अनुत्तर विमान के देव) इन सबके चैतन्य का विकास उत्तरोत्तर अधिक होता है । एकेन्द्रियों में चैतन्य इन सबसे जघन्य होता है। १५. अनेक जीव और पृथक सत्त्वों वाली ( अणेगजीवा पुढसत्ता )
जीव या आत्मा एक नहीं है किन्तु संख्या-दृष्टि से अनन्त है। वनस्पति के सिवाय शेष पाँच जीव-निकायों में से प्रत्येक में असंख्य-असंख्य जीव हैं और वनस्पतिकाय में अनन्त जीव हैं। यहां असंख्य और अनन्त दोनों के लिए 'अनेक' शब्द का प्रयोग हुआ है। जिस प्रकार वेदों में पथिवी देवता आपो देवता' द्वारा पृथिवी आदि को एक-एक माना है उस प्रकार जैन दर्शन नहीं मानता । वहाँ पृथ्वी आदि प्रत्येक को अनेक जीव माना है । यहाँ तक कि मिट्टी के कग, जल की बूद और अग्नि की चिनगारी में असंख्य जीव होते हैं। इनका एक शरीर दृश्य नहीं बनता । इनके शरीरों का पिण्ड ही हमें दीख सकता है।
___ अनेक जीवों को मानने पर भी कई सब में एक ही भूतात्मा मानते हैं । उनका कहना है -जैसे चन्द्रमा एक होने पर भी जल में भिन्न-भिन्न दिखाई देता है इसी तरह एक ही भूतात्मा जीवों में भिन्न-भिन्न दिखाई देती है । जैन-दर्शन में प्रत्येक जीव-निकायों के
१- (क) जि० चू० पृ० १३६ : चित्तमात्रमेव तेषां पृथिवी कायिनां जीवितलक्षणं, न पुनरुच्छ्वासादोनि विद्यन्ते।
(ख) हा० टी० ५० १३८ : ततश्च चित्तमात्रा-स्तोकचित्तेत्यर्थः ।। २--(क) अ० चू० पृ०७४ : अहवा चित्तं मतमेतेसि ते चित्तमत्ता, जहा पुरिसस्स मज्जपाणविसोवशेग-सपावराह-हिपूरभक्षण
मुच्छादीहि चेतोविघातकारणेहि जुगपदभिभूतस्स चित मत एवं पुढविक्कातियाणं । (ख) जि. चू० पृ०१३६ : जारिसा पुरिसस्स मज्जपीतविसोवभुतस्स अहिभक्खियमुन्छादोहि अभिभूतस्स चित्तमत्ता तओ
पुढविक्काइयाण कम्मोदएणं पावयरी, तत्थ सव्व जहण्णय चित्तं एगिदियाणं । (ग) हा० टी० ५० १३८ : तथा च प्रबलमोहोदयात् सर्वच घन्यं चैतन्यमेकेन्द्रियाणाम् । ३-(क) अ० चू० पृ० ७४ : सव्व जणं चित्तं एगिदियाणं, ततो विसुद्धतरं बेइन्दियाणं, ततो तेइन्दियाणं, ततो बोइन्दियाणं, ततो
असन्नीपंचिदितिरिक्खजोणिताणं, समुच्छिममणूसाण य, ततो गब्भवक्कंतियतिरियाणं, ततो गम्भवक्कतिम साणं, ततो
वाणमंतराणं, ततो भवणवासिणं ततो जोतिसियाणं ततो सोधम्मताणं जाव सबुक्कसं अगुत्तरोषवातियाणं देवाणं । (ख) जि० चू० पृ० १३६ : तत्थ सव्वजहणणयं वित्तं एगिदियाणं, तओ विसुद्धयरं बेइंदियाण, तओ विसुद्धतराग तेइंदियाण,
तओ विसुद्धयरागं चरिदियाणं, तओ असण्णोणं पंचेंदियाणं संमुच्छिममणुपाणं य, तओ सुद्धतरागं पंचिदितिरियाण, तओ गब्भवक्कंतियमणुयाणं, तओ वाणमंतराणं, तओ भवणवासीणं ततो जोइसियाण, ततो सोधम्मागंजाब सवुक्कोसं
अणुत्तरोववाइयाण देवाणंति । ४-(क) जि० चू० पृ० १३६ : अणेगे जीवा नाम न जहा वैदिएहि एगो जीवो पुढवित्ति, उक्त "पृथिवी देवता आपो देवता"
इत्येवमादि, इह पुण जिणसासणे अगेगे जीवा पुढवी भवति । (ख) हा० टी० ५० १३८ : इयं च 'अनेकजीवा' अनेके जीरा यस्यां साऽनेकजीवा, न पुनरेकजीवा, यथा दैदिकानां पृथिवी
देवते' त्येवमादिवचनप्रामाण्यादिति । ५ -(क) अ० चू० पु०७४ : ताणि पुण असंखेज्जाणि समुदिताणि चक्षुविसयमागच्छति ।
(ख) जि. चू० पृ० १३६ : असंखेज्जाणं पुण पुढविजीवाणं सरीराणि संहिताणि परिसयमागच्छतित्ति । ६-हा० टी० ५० १३८ : अनेकजीवाऽपि कैश्चिदेकभूतात्मापेक्षयेष्यत एव. यथाहुरेके - "एक एव ही भूतात्मा, भूते नूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥” अत आह- 'पृथक्सत्त्वा' पृथग्भूताः सत्वा ---आत्मानो यस्यां सा पृथक्तत्त्वा।
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