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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन ४ : सूत्र ४ टि ०१२-१४
सूत्र : ४ १२. शस्त्र (सत्थ) :
घातक पदार्थ को शस्त्र कहा जाता है । वे तीन प्रकार के होते हैं--स्वकाय-शस्त्र, परकाय-शस्त्र और उभयकाय-शस्त्र । एक प्रकार की मिट्टी से दूसरी प्रकार की मिट्टी के जीवों की धात होती है। वहाँ मिट्टी उन जीवो के लिए स्वकाय-शस्त्र है। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के भेद से एक काय दूसरे काय का शस्त्र हो जाता है। पानी, अग्नि आदि से मिट्टी के जीवों की घात होती है। वे उनके लिए परकाय-शस्त्र है। स्वकाय और परकाय दोनों संयुक्त रूप से घातक होते हैं तब उन्हें उभयकाय-शस्त्र कहा जाता है। जिस प्रकार काली मिट्टी जल में मिलने पर जल और धोली मिट्टी--दोनों का शस्त्र होती है । १३. शस्त्र-परिणति से पूर्व (अन्नत्थ सस्थपरिणएणं ) :
पूर्व शब्द 'अन्नत्थ' का भावानुवाद है। यहाँ 'अन्नत्य'--अन्यत्र --- शब्द का प्रयोग 'वर्जन कर– छोड़कर' अर्थ में है। 'अन्नत्थ सत्थपरिणएण' का शाब्दिक अनुवाद होगा ... शस्त्र-परिणत पृथ्वी को छोड़ कर -- उसके सिवा अन्य पृथ्वी 'सजीव' होती है ।
'अन्यत्र' शब्द के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे..... अन्यत्र भीष्माद् गाङ्ग याद् अन्यत्र च हनूमतः । १४. चित्तवती ( चित्तमंतं ) :
चित्त का अर्थ है जीव अथवा चेतना । पृथ्वी, जल आदि सजीव होते हैं, उनमें चेतना होती है इसलिए उन्हें चित्तवत् कहा गया है।
'चित्तमंत' के स्थान में वैकल्पिक पाठ चित्तमत्तं' है । इसका संस्कृत रूप चित्तमात्र होता है। मात्र शब्द के स्तोक और परिमाण ये दो अर्थ माने हैं। प्रस्तुत विषय में 'मात्र' शब्द स्तोकवाची है । पृथ्वी काय आदि पाँच जीवनिकायों में चैतन्य स्तोक
१- (क) दश० नि० २३१, हा० टी० ५० १३६ : किंचित्स्वकायशस्त्रं, यथा कृष्णा मृद् नीलादिमृदः शस्त्रम्, एवं गन्धरसस्पर्श
भेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या, तथा 'किञ्चित्परकाये' ति परकायशस्त्रं, यथा पृथ्वी अप्तेजःप्रभृतीनाम् अप्तेजः प्रभृतयो वा पृथिव्याः, 'तदुभयं किञ्चि' दिति किञ्चित्तदुभयशस्त्रं भवति, यथा कृष्णा मृद् उदकस्य स्पर्शरसगन्धादिभिः पाण्डुमृदश्च,
यदा कृष्णमृदा कलुषितमुदकं भवति तदाऽसौ कृष्णमृद् उदकस्य पाण्डुमृदश्च शस्त्रं भवति । (ख) जि० चू० पृ० १३७ : किंची ताव दव्वसत्थं सकायसत्थं किंचि परकायसत्यं किंचि उभयकायसत्थंति, तत्थ सकायसत्थं जहा
किण्हमट्टिया नीलमट्टियाए सत्थं, एवं पंचवण्णादि परोप्परं सत्यं भवति, जहा य वण्णा तहा गंधरसफासावि भाणियब्वा, परकायसत्थं नाम पुढविकायो आउक्कायस्स सत्थं पुढविकायो ते उक्का यस्स पुढविकाओ वाउकायस्स पुढविकाओ वणस्स. इकायस्स पुढविकाओ तसकायस्स, एवं सवे परोप्परं सत्थं भवंति, उभयसत्यं णाम जाहे किण्हमट्टियाए कलुसियमुदगं
भवइ जाव परिणया। २-(क) अ० चू० पृ० ७४ : अण्णत्थ सद्दो परिवज्जणे वट्टति । (ख) जि० चू० पृ० १३६ : अण्णत्थसद्दो परिवज्जणे वट्टइ, कि परिवज्जइयइ ? सत्थपरिणयं पुढवि मोत्तूणं जा अण्णा पुढवी
सा चित्तमंता इति तं परिवज्जयति । (ग) हा० टी० प० १३८-६ : अन्यत्र शस्त्रपरिणताया.'--शस्त्रपरिणतां पृथिवीं विहाय–परित्यज्यान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः । ३-(क) जि० चू० पृ० १३५ : चित्तं जीवो भण्णइ, तं चित्तं जाए पुढवीए अस्थि सा चित्तमंता, चेयणाभावो भण्णइ, सो चेयणा
भावो जाए पुढवीए अस्थि सा चित्तमंता। (ख) हा० टी० ५० १३८ : 'चित्तवती' ति चित्तं --जीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चित्तवती सजीवेत्यर्थः । ४- (क) जि० चू० पृ० १३५ : अहवा एवं पढिज्जइ 'पुढवि चित्तमत्तं अक्खाया।
(ख) हा० टी० ५० १३८ : पाठान्तरं वा 'पुढवी चित्तमत्तमक्खाया' । ५- (क) अ० चू० पृ० ७४ : इह मत्तासद्दो थोवे । (ख) जि० चु० पृ० १३५ : चित्त चेयणाभावो चेव भण्णइ, मत्तासहो दोसु अत्थेस वइ, तं०-थोवे वा, परिमाणे वा थोवओ
जहा सरिसवतीभागमत्तमणेण दतं, परिमाणे परमोही अलोगे लोगप्पमाणमेसाई खंडाई जाणइ पासइ इह पुण मत्तासहो
थोवे वट्टइ। (ग) हा० टी० ५० १३८ : अत्र मात्रशब्द: स्तोकवाची, यथा सर्षपत्रिभागमात्रमिति ।
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