________________
छज्जीवणिया (षड्जीवनिका )
१२३
अध्ययन ४ : सूत्र ३ टि० ११
प्रयुक्त मानते हैं -- ऐसा उल्लेख हरिभद्र सूरि ने किया है । यह अर्थ ग्रहण करने से अनुवाद होगा - इस धर्म - प्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन आत्मा के लिए श्रेय है ।'
सूत्र ३ :
११ पृथ्वी-कायिक
साविक ( पुरविकाइया
तसकाइया) :
जिन छह प्रकार के जीव - निकाय का उल्लेख है, उनका क्रमशः वर्णन इस प्रकार है :
(१) काठिन्य आदि लक्षण से जानी जानेवाली पृथ्वी ही जिनका काय —शरीर होता है उन जीवों को पृथ्वीकाय कहते हैं । पृथ्वीका जी ही पृथ्वीकारिक कहलाते हैं। मिट्टी, बासु, लवण, सोना, चांदी, अभ्र आदि पृथ्वीका
जीवों के प्रकार
हैं । इनकी विस्तृत तालिका उत्तराध्ययन में मिलती है ।
(२) प्रवाहशील द्रव्य जल ही जिनका काय शरीर होता है उन जीवों को अकाय कहते हैं अप्काय जीव ही अकायिक
कहलाते हैं। शुद्धोदक, ओस, हरतनु, महिका, हिम- ये सब अप्कायिक जीवों के प्रकार हैं। (३) उष्णलक्षण तेज ही जिनका काय- -शरीर होता है उन जीवों को तेजस्काय कहते हैं। तेजस्काय जीव ही तेजस्कायिक कहलाते हैं | अंगार, मुर्मुर, अग्नि, अर्चि, ज्वाला, उल्काग्नि, विद्युत् आदि तेजस्कायिक जीवों के प्रकार हैं ।
(४) चलनधर्मा वायु ही जिनका काय शरीर होता है उन जीवों को वायुकाय कहते हैं । वायुकाय जीव ही वायुकायिक कहलाते हैं । उत्कलिकावायु मण्डलिकावायु घनवायु, गुंजावायु, संवर्तकवायु आदि वायुकायिक जीव हैं । (५) लतादि रूप वनस्पति ही जिनका काय शरीर होता है उन जीवों को वनस्पतिकाय कहते हैं । वनस्पतिकाय जीव ही वनस्पतिकायिक कहलाते हैं"। वृक्ष, गुच्छ, लता, फल, तृण, आलू, मूली आदि वनस्पतिकायिक जीवों के प्रकार हैं" ।
(६) त्रसनशील को बस कहते हैं । त्रस ही जिनका काय- -शरीर है उन जीवों को त्रसकाय कहते हैं । त्रसकाय जीव ही असकाधिक कहलाते है" । कृमि, शंख, कुंपला, माखी मच्छर आदि तथा मनुष्य, पशु-पक्षी, तिर्यञ्च देव और नैरमिक जीव सजीव 43
7
स्वार्थ में इक प्रत्यय होने पर पृथ्वीकाय आदि से पृथ्वीकायिक आदि शब्द बनते हैं"।
१- हा० टी० प० १३७ छान्दसत्वात्सामान्येन ममेत्यात्मनिर्देश इत्यन्ये ।
२ - हा० टी० प० १३८ : पृथिवी - काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता सैव काय: - शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः ।
३ – उत्त० ३६.७२-७७ ॥
४ – हा० टी० ० प० १३८ : आपो-द्रवाः प्रतीता एव ता एव कायः शरीरं येषां तेऽष्कायाः अष्काया एव अष्कायिकाः ।
५उत्त० ३६.८५ ।
६ हा० टी० प० १३८ : तेज-- उष्णलक्षणं प्रतीतं तदेव कायः शरीरं येषां ते तेजःकायाः तेजःकाया एव तेजःकायिकाः । ७- उत्त० ३६.११०-१ ।
८- हा० टी प० १३८ : वायुः -- चलनधर्मा प्रतीत एव स एव कायः शरीरं येषां ते वायुकायाः वायुकाया एव वायुकायिकाः । ६-- उत्त० ३६.११८.६ ॥
१० -- हा० टी० प० १३८ : वनस्पतिः - लतादिरूपः प्रतीतः स एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः ।
११ – उत्त० - ३६.६४-६
१२- हा०टी० प०१३८ : एवं त्रसनशीलास्त्रसाः --- प्रतीता एव, त्रसाः काया: शरीराणि येषां ते सकायाः, त्रसकाया एव त्रसकायिकाः ।
१३ – उत्त० ३६.१२८-१२९, १३६-१३६, १४६ १४८, १५५ ।
१४ १० टी० ५० ११८ स्वा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org