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________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) १२२ अध्ययन ४ : सूत्र १ टि० ६-१० के आलोक द्वारा स्वयं अच्छी तरह वेदित - जाना हुआ प्रवेदित है'। जिनदास ने इस शब्द का अर्थ किया है- विविध रूप से - अनेक प्रकार से कथित' । ६ - सु-आख्यात ( सुयक्खाया ) : इसका अर्थ है - भली भांति कहा। यह बात प्रसिद्ध है कि भगवान् महावीर ने देव, मनुष्य और असुरों की सम्मिलित परिषद् में जो प्रथम प्रवचन दिया वह षड्जीवनिका अध्ययन है । ७- सुप्रशप्त ( सुपनशा ) : 'सु-प्रज्ञप्त का अर्थ है -- जिस प्रकार प्ररूपित किया गया है उसी प्रकार आचीर्ण किया गया है। जो उपदिष्ट तो है पर आचीर्ण नहीं है वह सुप्रज्ञप्त नहीं कहलाता । प्रवेदित सुआख्यात और मृतका अर्थ है भगवान् ने पजीवनिका को जाना, उसका उपदेश किया और जैसे उपदेश किया वैसे स्वयं उसका आचरण किया । ८--धर्म-प्रज्ञप्ति ( धम्मपन्नती ) : 'छज्जीवणिया ' अध्ययन का ही दूसरा नाम 'धर्म-प्रज्ञप्ति' है । जिससे धर्म जाना जाय उसे धर्म- प्रज्ञप्ति कहते हैं । E -- पठन (अहिज्जिउं ) : इसका अर्थ है १० -- मेरे लिए ( मे ) : 'मे' शब्द का अर्थ है- अपनी आत्मा के लिए स्वयं के लिए। कई व्याख्याकार 'मे' को सामान्यतः 'आत्मा' के स्थान में -अध्ययन करना | पाठ करना, सुनना, विचारना – ये सब भाव 'अहिज्जिउं' शब्द में निहित हैं । २- ० ० ० १३२ १- हा० टी० प० १३७ : स्वयमेव केवलालोकेन प्रकर्षेण वेदिता -- विज्ञातेत्यर्थः । प्रवेदिता नाम विविमनेकपकार कवितेत्युक्तं भवति । १३२ : सोभणेण पगारेण अक्खाता सुट्टु वा अक्खाया । ३ - (क) जि० चू० पृ० (ख) हा० टी० प० १३७ : सदेवमनुष्यासुराणां पर्षदि सुष्ठु आख्याता, स्वाख्याता । ४- श्री महावीर कथा पू० २१६ । ५ (क) जि० ० १० १२२ जब पविया तब आइष्णायि इतरहा वह उबईसिऊन तहा आपरतो तो नो सुपण्णत्ता होंतित्ति । (ग) हा० टी० प० १३७ सुष्ठु प्रज्ञप्ता यथैव आख्याता तदुक्ष्मपरिहारासेवनेन प्रकर्षण सम्यगासेवितेत्यर्थ अनेकार्थत्वाद्धातूनां पिवनार्थः । ६ - हा० टी० पृ० १३८ अन्ये तु व्याचक्षते अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपादेयतयाऽनुवाद मात्रमेतदिति । ७ - ( क ) अ० चू० पृ० ७३ : धम्मो पण्णविज्जए जाए सा धम्मपण्णत्ती, अज्झयण विसेसो । (ख) जि० चू० पृ० १३२ : धम्मो पण्णविज्जमाणो विज्जति जत्थ सा धम्मपन्नत्ती । (ग) हा० टी० प० १३८ : 'धर्मप्रज्ञप्तेः' प्रज्ञपनं प्रज्ञप्तिः धर्मस्य प्रज्ञप्तिः धर्मप्रज्ञप्तिः । जि० ० चू० पृ० १३२ : अहिज्जिउं नाम अज्झाइउं । ६० डी० १० १३ १०- ( क ) जि० चू० पृ० (ख) हा० टी० प० अध्येतु' मिति पठितुं श्रोतुं भावयितुम् । १३२ : 'मे' त्ति अत्तणो निद्देसे । १३७ : ममेत्यात्मनिर्देशः । ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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