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दसवेलियं ( दशवैकालिक )
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अध्ययन ४ : सूत्र १ टि० ६-१०
के आलोक द्वारा स्वयं अच्छी तरह वेदित - जाना हुआ प्रवेदित है'। जिनदास ने इस शब्द का अर्थ किया है- विविध रूप से - अनेक प्रकार से कथित' ।
६ - सु-आख्यात ( सुयक्खाया ) :
इसका अर्थ है - भली भांति कहा। यह बात प्रसिद्ध है कि भगवान् महावीर ने देव, मनुष्य और असुरों की सम्मिलित परिषद् में जो प्रथम प्रवचन दिया वह षड्जीवनिका अध्ययन है ।
७- सुप्रशप्त ( सुपनशा ) :
'सु-प्रज्ञप्त का अर्थ है -- जिस प्रकार प्ररूपित किया गया है उसी प्रकार आचीर्ण किया गया है। जो उपदिष्ट तो है पर आचीर्ण नहीं है वह सुप्रज्ञप्त नहीं कहलाता ।
प्रवेदित सुआख्यात और मृतका अर्थ है भगवान् ने पजीवनिका को जाना, उसका उपदेश किया और जैसे उपदेश किया वैसे स्वयं उसका आचरण किया ।
८--धर्म-प्रज्ञप्ति ( धम्मपन्नती ) :
'छज्जीवणिया ' अध्ययन का ही दूसरा नाम 'धर्म-प्रज्ञप्ति' है । जिससे धर्म जाना जाय उसे धर्म- प्रज्ञप्ति कहते हैं ।
E -- पठन (अहिज्जिउं ) :
इसका अर्थ है
१० -- मेरे लिए ( मे ) :
'मे' शब्द का अर्थ है- अपनी आत्मा के लिए स्वयं के लिए। कई व्याख्याकार 'मे' को सामान्यतः 'आत्मा' के स्थान में
-अध्ययन करना | पाठ करना, सुनना, विचारना – ये सब भाव 'अहिज्जिउं' शब्द में निहित हैं ।
२- ० ० ० १३२
१- हा० टी० प० १३७ : स्वयमेव केवलालोकेन प्रकर्षेण वेदिता -- विज्ञातेत्यर्थः । प्रवेदिता नाम विविमनेकपकार कवितेत्युक्तं भवति । १३२ : सोभणेण पगारेण अक्खाता सुट्टु वा अक्खाया ।
३ - (क) जि० चू० पृ०
(ख) हा० टी० प० १३७ : सदेवमनुष्यासुराणां पर्षदि सुष्ठु आख्याता, स्वाख्याता ।
४- श्री महावीर कथा पू० २१६ ।
५ (क) जि० ० १० १२२ जब पविया तब आइष्णायि इतरहा वह उबईसिऊन तहा आपरतो तो नो
सुपण्णत्ता
होंतित्ति ।
(ग) हा० टी० प० १३७ सुष्ठु प्रज्ञप्ता यथैव आख्याता तदुक्ष्मपरिहारासेवनेन प्रकर्षण सम्यगासेवितेत्यर्थ अनेकार्थत्वाद्धातूनां पिवनार्थः ।
६ - हा० टी० पृ० १३८ अन्ये तु व्याचक्षते अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपादेयतयाऽनुवाद मात्रमेतदिति ।
७ - ( क ) अ० चू० पृ० ७३ : धम्मो पण्णविज्जए जाए सा धम्मपण्णत्ती, अज्झयण विसेसो ।
(ख) जि० चू० पृ० १३२ : धम्मो पण्णविज्जमाणो विज्जति जत्थ सा धम्मपन्नत्ती ।
(ग) हा० टी० प० १३८ : 'धर्मप्रज्ञप्तेः' प्रज्ञपनं प्रज्ञप्तिः धर्मस्य प्रज्ञप्तिः धर्मप्रज्ञप्तिः । जि० ० चू० पृ० १३२ : अहिज्जिउं नाम अज्झाइउं । ६० डी० १० १३ १०- ( क ) जि० चू० पृ० (ख) हा० टी० प०
अध्येतु' मिति पठितुं श्रोतुं भावयितुम् । १३२ : 'मे' त्ति अत्तणो निद्देसे । १३७ : ममेत्यात्मनिर्देशः ।
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