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________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ७६ अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि०३४ २ -- जिनदास महत्तर ने पहले स्थल पर अर्थ किया है-गृहस्थों के साथ अन्नपानादि का संविभाग करना। दूसरे स्थल पर अर्थ किया है --गृहस्थों का आदर करना, उनका प्रीतिजनक असंयम की अनुमोदना करने वाला उपकार करना । हरिभद्र सूरि ने पहले स्थल पर अर्थ किया है--गृहस्थ को अन्नादि देना। दूसरे स्थल पर अर्थ किया है-गृहस्थों के उपकार के लिए उनके कर्म को स्वयं करना । अगस्त्यसिंह स्थविर की व्याख्या के अनुसार प्रस्तुत अध्ययन में 'वैयापृत्य' का प्रयोग उपकार करने की व्यापक प्रवृत्ति में हआ है-ऐसा लगता है और जिनदास महतर तथा हरिभद्र सूरि की व्याख्या से ऐसा लगता है कि इसका यहाँ प्रयोग ---अन्नपान के संविभाग के अर्थ में हुआ है। सूत्रकृताङ्ग (१.६) में इस अनाचार का नामोल्लेख नहीं मिलता, पर लक्षण रूप से इसका वर्णन वहाँ आया है। वहीं श्लोक २३ में कहा है - "भिक्षु अपनी संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए अन्नपान ग्रहण करता है उसे दूसरों को-गृहस्थों को-देना अनाचार है। उत्तराध्ययन सूत्र के बारहवें अध्ययन में 'वेयावडिय' शब्द दो जगह व्यवहृत है। वहाँ इसका अर्थ अनिष्ट निवारण के लिए अर्थात् परिचर्या के लिए व्यापृत होना है। अध्यापक की बात सुनकर बहुत से कुमार दौड़ आये और भिक्षा के लिए ब्रह्माबारे में आये हुए ऋषि हरिकेशी को दण्ड, बेत और चाबुक से मारने लगे। ऋषि हरिकेशी का 'वैयापृत्य' करने के लिए यक्ष कुमारों को रोकने लगा । यक्ष ने कुमारों को बुरी तरह पीटा। पुरोहित ने मुनि से माफी मांगी। उसने कहा - "ऋषि महाकृपाल होते हैं। ये कोप नहीं करते।" ऋषि बोले- "मेरे मन में न तो पहले द्वेष था न अब है और न आगे होगा, किन्तु यक्ष मेरा 'वैयाप्रत्य' करता है, उसी ने इन कुमारों को पीटा है।" आगमों में 'वेयावच्च' शब्द भी मिलता है । इसका संस्कृत रूप 'वैयावृत्य है। इसका अर्थ १- (क) जि० चू० पृ० ११४ : गिहिवेयावडीयं जं गिहीण अण्णपाणादीहिं विसूरंताण विसंविभागकरणं, एवं वेयावडियं भण्णइ । (ख) वही पृ० ३७३ : गिह-पुत्तदारं तं जस्स अस्थि सो गिही, एगवयगं जातीअस्थमवदिस्सति, तस्स गिहिणो"वेयावडिय न कुज्जा" वेयावडियं नाम तथाऽऽदरकरणं, तेसि वा पीतिजणणं, उपकारकं असंजमाणुमोदणं ण कुज्जा । २-(क) हा० टी० ५० ११७ : व्यावृत्तभावो-वैयावृत्त्यं, गृहस्थं प्रति अन्नादिसंपादनम् । (ख) डा० टी०प०२८१: गहिणो' गृहस्थस्य 'वैयावृत्त्यं' गृहिभावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्तभावं न कुर्यात, स्वपरोभयाश्रेयः समायोजनदोषात् । .-... सू० १.६.२३ : जेणेहं णिव्वहे भिक्खू, अन्नपाणं तहाविहं । अगुप्ता अणुप्पदाणमन्नेसि, तं विज्ज ! परिजाणिया । ४--उत्त०१२.२४.३२ : एयाई तीसे वयणाइ सोच्चा, पत्तीइ भद्दाइ सुहासियाई। इसिस्स वेयावडियट्टयाए, जक्खा फुमारे विणिवाडयन्ति । पवि च इण्हि च अणागयं च, मणप्पदोसो न मे अस्थि कोइ। जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति, तम्हा हु एए निहया कुमारा॥ ५-उत्त० १२.२४ बृ० १०३६५ : वैयावृत्त्यार्थमेतत् प्रत्यनीकनिवारणलक्षणे प्रयोजने व्यावृत्ता भवाम इत्येवमर्थम् । ६- उत्त० १२.३२ ६० प० ३६७ : वयावृत्त्यं प्रत्यनीकप्रतिघातरूपम् । ७ .---(क) उत्त० २६.४३ : वेयावच्चेणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबन्धइ । (ख) उत्त० ३०.३० : पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं च विउस्सग्गो एसो अन्भिन्तरो तवो ॥ (ग) ठा० ६.६६ । (घ) भग० २५.७॥ (ङ) औप० सू० ३०। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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