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दसवेआलियं ( दशवेकालिक )
अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि० ३५
उसका
है - साधु को शुद्ध आहारादि से सहारा पहुंचाना' । दिगम्बर साहित्य में अतिथि संविभाग व्रत का नाम वैयावृत्य है । अर्थं दान है २ । कौटिलीय अर्थशास्त्र में वैयावृत्त्य और वैयावृत्य दोनों शब्द मिलते है । वैयावृत्त्य का अर्थ परिचर्या और वैयावृत्य का अर्थ फुटकर विकी है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि गृहस्थ को आहारादि का विभाग देना तथा गृहस्थों की रोवा करना ये दोनों भाव 'गिहिरो वेयावडियं' अनाचार में समाए हुए हैं।
३५. आजीववृत्तिता ( आजीववित्तिया
'जीव' शब्द का अर्थ है आजीविका के उपाय या साधन ये पांच आशीय पिण्ड नियुक्ति निपीय-आय आदि ग्रन्थों में 'लिङ्ग के में तप और श्रुत इन दो को भी 'आजीव' कहा है। इनसे - जाति आदि से
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हैं । आजीविका के साधन जाति आदि भेदों के आधार से आजीववृत्तिता के निम्न आठ प्रकार होते हैं---
१ - जाति का अर्थ ब्राह्मण आदि जाति अथवा मातृपक्ष होता है। अपनी जाति का आश्रय लेकर अर्थात् अपनी जाति बताकर आहारादि प्राप्त करना जात्याजीववृत्तिता हैं" ।
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स्थानास सूप के अनुसार जाति, कुल, कर्म, शिल्प और विज्ञ स्थान पर गण का उल्लेख मिलता है। व्यवहार-भाष्य जीवन निर्वाह करने की वृत्ति को 'आजीववृत्तिता' कहते
१ - ( क ) भग० २५.७ ।
(ख) ठा० ६.६६ टी० प० ३४६ : व्यावृत्तभावो वैयावृत्यं धर्मसाधनार्थं अन्नादिदानमित्यर्थः । (ग) ठा० ३.४१२ टी० प० १४५ : व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यं भवतादिभिरुपष्टम्भः । (घ) औष० टी० पृ० १'जावा' यात्वं भक्तपानादिभिष्टम्भः ।
(४) उ० २०.३३ ० ० ६० व्यावृराभावो वैयावृत्यम् उचित आहारादि सम्पादनम् । २- रत्नकरण्ड श्रावकाचार १११ । दानं वैयावृत्त्यं, धर्माय तपोधनाय गुणनिधये ।
३. कटिलीय अर्थशास्त्र अधिकरण २ प्रकरण २३.२०
यास्काराणामर्थदण्ड व्याख्या तयारयकाराणां तस्यावृत्यकाराः विशेषेण आसमन्ताद् वर्तन्त इति । व्यावृत्तः परिचारकः तस्य कर्म वैयावृत्त्यं परिचर्या तत् कुर्वन्तः परिचारिकाः तेषां अर्धदण्डः ।
वैयावृत्त्यं शब्द का प्रयोग कौ० अ० चतुर्थ अधिकरण प्रकरण ८३.११ में भी मिलता है ।
४. वही अधिकरण ३ प्रकरण ६४.२०
इति व शब्द पाठे यथा कर्मकरार्थता तथा व्याख्यातमधस्तात् ।
५ — (क) सू० १.१३.१२ टी० १० २३६ : आजीवम् - आजीविकाम् आत्मवर्तनोपायम् :
(ख) सू० १.१३.१५ टी० प० २३७ आसमन्ताज्जीवन्त्यनेन इति आजीवः ।
६- ठा० ५.७१ : पंचविधे आजीविते पं० तं० जातिआजीवे कुलाजीवे कम्माजीवे सिप्पाजीवे लिंगाजीवे ।
विषयस्तु व्याख्या व्याप्तो व्याप्रियमाणस्तस्य कर्म यात्वं व्यापृत्करा
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(क) पिं० नि० ४३७ : जाई कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा ।
(ख) नि० भा० ० ४४११ जाती कुल-गण-कम्मे, सिग्वे आजीवणा पंचविहा
(ग) ठा० ५.७१ टी० प० २८६ : लिङ्गस्थानेऽन्यत्र गणोऽधीयते ।
(घ) अ० चू० पृ० ६१; जि० चू० पृ० ११४ : 'जाती कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा ।' ८- व्य० भा० २५३ जाति कुले गणे वा, कम्मे सिप्पे तवे सूए चेव । सत्तविहं आजीवं, उवजीवइ जो कुसीलो उ ॥
६ -- हा० टी० प० ११७ : जातिकुलगणकर्मशिल्पानामाजीवनम् आजीवः तेन वृत्तिस्तद्भाव आजीववृत्तिता जात्याद्याजीवनेनात्मपालनेत्यर्थः इयं चानाचरिता ।
१०- (क) पिं० नि० ४३० टी० जाति: ब्राह्मणादिका....
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'अथवा मातुः समुत्था जातिः ।
(ख) ठा० ५.७१ टी० प० २८६ : जाति ब्राह्मणादिकाम् आजीवति उपजीवति तज्जातीयमात्मानं सूचादिनोपदर्य ततो भक्तादिकं गृह्णातीति जात्याजीवकः एवं सर्वत्र ।
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