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खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ८१ अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि० ३५ २- कुल का अर्थ उग्रादिकुल अथवा पितृपक्ष है' । कुल का आश्रय लेकर अर्थात् कुल बतलाकर आजीविका करना कुलाजीव.
वृत्तिता है । ३-कर्म का अर्थ कृषि आदि कर्म हैं । आचार्य आदि से शिक्षण पाए बिना किये जानेवाले कार्य कर्म कहे जाते हैं। जो कृषि आदि
में कुशल हैं, उन्हें अपनी कर्म-कुशलता की बात कह आहारादि प्राप्त करना कर्माजीववृत्तिता है । ४-बुनना, सिलाई करना आदि शिल्प हैं । शिक्षण द्वारा प्राप्त कौशल शिल्प कहा जाता है। जो शिल्प में कुशल हैं, उन्हें अपने
शिल्प-कौशल की बात कह आहारादि प्राप्त करना शिल्पाजीववृत्तिता है। ५-- लिङ्ग वेष को कहते हैं । अपने लिङ्ग का सहारा ले आजीविका करना लिङ्गाजीववृत्तिता है। ६-गण का अर्थ मल्लादि गण (गण-राज्य) है । अपनी गणविद्याकुशलता को बतलाकर आजीविका करना गणाजीवत्तिता है। ७-अपने तप के सहारे अर्थात् अपने तप का वर्णन कर, आजीविका प्राप्त करना तप-आजीववृत्तिता है। ८-श्रुत का अर्थ है शास्त्रज्ञान । श्रुत के सहारे अर्थात् अपने श्रुत ज्ञान का बखान कर आजीविका प्राप्त करना श्रुताजीव
वृत्तिता है।
जाति आदि का कथन दो तरह से हो सकता है : (१) स्पष्ट शब्दों में अथवा (२) प्रकारान्तर से सूचित कर । दोनों ही प्रकार से जात्यादि का कथन कर आजीविका प्राप्त करना आजीववृत्तिता है।
साधु के लिए आजीववृत्तिता अनाचार है । मैं अमुक जाति, कुल, गण का रहा हूँ । अथवा अमुक कर्म या शिल्प करता था अथवा मैं बड़ा तपस्वी अथवा बहुश्रुत है-यह स्पष्ट शब्दों में कहकर या अन्य तरह से जताकर यदि भिक्षु आहार आदि प्राप्त करता है तो आजीववृत्तिता अनाचार का सेवन करता है।
सूत्रकृताङ्ग में कहा है--"जो भिक्षु निष्किचन और सुरूक्षवृत्ति होने पर भी मान-प्रिय और स्तुति की कामना करनेवाला है उसका संन्यास आजीव है । ऐसा भिक्षु मूल-तत्व को न समझता हुआ भव-भ्रमण करता है।"
१--(क) पि०नि० ४३८ टी० : कुलम् - उग्रादिः अथवा .... पितृसमुत्थं कुलम् । (ख) व्य० भा० २५३ टी० : एवं सप्तविधम् आजीवं य उपजीवति-जीवनार्थमाश्रयति, तद्यथा--जाति कुलं चात्मीयं
लोकेभ्यः कथयति। २--पि०नि० ४३८ टी० : कर्म-कृष्यादि:..... अन्ये त्वाहुः-अनाचार्योपदिष्टं कर्म । ३-(क) पि०नि० ४३८ टी० : शिल्पं तूर्णादि-तूर्णनसीवनप्रभृति । आचार्योपदिष्टं तु शिल्पमिति ।
(ख) व्य० भा० २५३ टी० : कर्मशिल्पकुशलेभ्यः कर्मशिल्पकौशलं कथयति । (ग) नि० भा० गा० ४४१२ चू० : कम्मसिप्पाणं इमो विसेसो-विणा आयरिओवदेसेण जं कज्जति तणहारगादि तं कम्म,
इतरं पुण जं आयरिओवदेसेण कज्जति तं सिप्पं । ४.-.-ठा० ५.७१ टी० प० २८६ : लिङ्ग-साधुलिङ्ग तदाजीवति, ज्ञानादिशून्यस्तेन जीविकां कल्पयतीत्यर्थः । ५-(क) पि० नि० ४३८ टी० : गणः --मल्लादिवृन्दम् ।
(ख) व्य० भा० २५३ टो० : मल्लगणादिभ्यो गणेभ्यो गणविद्याकुशलत्वं कथयति । ६...व्य. भा० २५३ टी० : तपस: उपजीवना तपः कृत्वा क्षपकोऽहमिति जनेभ्यः कथयति । ७- व्य० भा० २५३ टी० : श्रुतोपजीवना बहुश्रुतोऽहमिति । ८-(क) पि०नि० ४३७ : सूयाए असूयाए व अप्पाण कहेहि एक्कक्के । (ख) इसी सूत्र को टीका-सा चाऽऽजीवना एककस्मिन् भेदे द्विधा, तद्यथा--सूचया आत्मानं कथयति, असूचया च, तत्र 'सूचा'
वचनं भङ्गिविशेषेण कथनम्, 'असूचा' स्फुटवचनेन । (ग) ठा० ५.७० टी० प० २८६ : सूचया--व्याजेनासूचया–साक्षात् । है--सू० १.१३.१२ : णिक्किचणे भिक्खु सुलूहजीवी, जे गारवं होइ सिलोगगामी।
आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो, पुणो पुणो विप्परियासुवेति ॥
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