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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन३: श्लोक ६ टि०३६
उत्तराध्ययन में कहा गया है-जो शिल्प-जीवी नहीं होता, वह भिक्षु' । इसी तरह कृषि आदि कर्म करने का भी वर्जन है। जब गृहस्थावस्था के कर्म, शिल्प आदि का उल्लेख कर या परिचय दे भिक्षा प्राप्त करना अनाचार है, तब कृषि आदि कर्म व सूचि आदि शिल्पों द्वारा आजीविका न करना साधु का सहज धर्म हो जाता है।
व्यवहार भाष्य में जो आजीव से उपजीवन करता है उसे कुशील कहा है। आजीववृत्ति ता उत्पादन दोषों में से एक है। निशीथ सूत्र में आजीवपिण्ड-आजीववृत्तिता से प्राप्त आहार --खानेवाले श्रमण के लिए प्रायश्चित्त का विधान है । भाष्य में कहा है -जो ऐसे आहार का सेवन करता है वह आज्ञा-भंग, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना का भागी होता है।
जाति आदि के आश्रय से न जीनेवाला साधु 'मुधाजीवा' कहा गया है। जो 'मुधाजीवी' होता है वह सद्-गति को प्राप्त करता है । जो श्रमण 'मुधाजीवी' नहीं होता वह जिह्ना-लोलुप बन श्रामण्य को नष्ट कर डालता है। इसलिए आजीबवृत्तिता अनाचार है।
साधु सदा याचित ग्रहण करता है कभी भी अयाचित नहीं । अतः उसे गृहस्थ के यहाँ गवेषणा के लिए जाना होता है। संभव है गृहस्थ के घर में देने के योग्य अनेक वस्तुओं के होने पर भी वह साधु को न दे अथवा अल्प दे अथवा हल्की वस्तु दे । यह अलाभ परीषह है । जो भिक्षु गृहस्थावस्था के कुल आदि का उल्लेख कर या परिचय दे उनके सहारे भिक्षा प्राप्त करता है, वह एक तरह की दीनवृत्ति का परिचय देता है। इसलिए भी आजीववृत्तिता अनाचार है।
३६. तप्तानिवृतभोजित्व ( तत्तानिव्वुडभोइत्तंग):
तप्त और अनित इन दो शब्दों का समास मिथ (सचित्त-अचित्त) वस्तु का अर्थ जताने के लिए हुआ है । जितनी दृश्य बस्तुएँ हैं वे पहले सचित्त होती हैं। उनमें से जब जीव च्युत हो जाते हैं, केवल शरीर रह जाते हैं, तब वे वस्तुएँ अचित्त बन जाती हैं। जीवों का च्यवन काल-मर्यादा के अनुसार स्वयं होता है और विरोधी पदार्थ के संयोग से काल-मर्यादा से पहले भी हो सकता है। जीवों की सत्य के कारण-भूत विरोधी पदार्थ शस्त्र कहलाते हैं । अग्नि मिट्टी, जल, वनस्पति और त्रस जीवों का शस्त्र है। जल और वनस्पति सचिन बोले हैं। अग्नि से उबालने पर ये अचित्त हो जाते हैं। किन्तु ये पूर्ण-मात्रा में उबाले हुए न हों उस स्थिति में मिश्र बन जाते हैं . कछ जीव मरते हैं कछ नहीं मरते इसलिए वे सचित्त-अचित्त बन जाते हैं । इस प्रकार के पदार्थ को तप्तानि त कहा जाता है।
प्रस्तत सूत्र ५.२.२२ में तप्तानिवृत्त जल लेने का निषेध मिलता है तथा ८.६ में 'तत्तफासुय' जल लेने की आज्ञा दी है। इससे स्पष्ट होता है कि केवल गर्म होने मात्र से जल अचित्त नहीं होता । किन्तु वह पूर्णमात्रा में गर्म होने से अचित्त होता है। मात्रा की पूर्णता के बारे में चणिकार और टीकाकार का आशय यह है कि त्रिदण्डोवृत्त-तीन बार उबलने पर ही जल अचित्त होता है, अन्यथा नहीं ।
१-उत्त० १५.१६ : असिप्पजीवी.......स भिक्खू । २-व्यवहार भाष्य २५३ । ३-श्रमण सू० पृ० ४३२ : धाई दूई निमित्ते आजीव वणीमगे तिगिच्छा य ।
___ कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए । ४-नि० १३.६७ : जे भिक्खू आजीविपिंडं भुजति भुजंतं वा सातिज्जति । ५ --नि० भा० गा० ४४१० : जे भिक्खाऽऽजीवपिंड, गिण्हेज्ज सयं तु अहव सातिज्जे ।
सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥ ६ हा० टी० ५० १८१ । 'मुधाजीवी' सर्वथा अनिदानजीवी, जात्याद्यनाजीवक इत्यन्ये । ७- दश० ५.१.१०० : मुहादाई मुहाजीवो, दो वि गच्छन्ति सोग्गई। ८- उत्त० २.२८ : सव्वं से जाइयं होइ, नस्थि किंचि अजाइयं । &-अ० चू० पृ० ६१ : जाव णातीवअगणिपरिणतं तं तत्तअपरिणिव्वुडं । १० (क) अ० चू० पृ० ६१ : अहवा तत्तम व तिनि बारे अणुव्वत्तं अणिव्वुडं।
(ख) जि० चू० पृ० ११४ : अहवा तत्तमवि जाहे तिण्णि वाराणि न उव्वत्तं भवइ ताहे तं अनिव्वुडं, सचित्तति वुत्तं भवइ । (ग) हा० टी० ५० ११७ : 'तप्तानिवृतभोजित्वम्'–तप्तं च तदनिवृतं च-अत्रिदण्डोवृत्त चेति विग्रहः, उदकमिति
विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते, तद्भोजित्वं-मिश्रसचित्तोदकभोजित्वम् इत्यर्थः ।
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