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खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा) ८३ अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि०३६
___दश० ५२.२२ में 'वियडं वा तत्तनिव्वुडं' और ८.६ में 'उसिणोदगं तत्तफासुयं' – इन दोनों स्थलों में क्रमशः तप्तानिवृत जल का निषेध और तप्तप्रासुक जल का विधान है। किन्तु प्रस्तुत स्थल में तप्तानित के साथ भोजित्व शब्द का प्रयोग हुआ है। इसलिए इसका सम्बन्ध भक्त और पान दोनों से है। इसलिए एक बार भुने हुए शमी-धान्य को लेने का निषेध किया गया है। गर्म होने के बाद ठंडा हुआ पानी कुछ समय में फिर सचित्त हो जाता है उसे भी 'तप्तानिवृत' कहा गया है ।
अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार ग्रीष्म-काल में एक दिन-रात के बाद गर्म पानी फिर सचित्त हो जाता है। तथा हेमन्त और वर्षाऋतु में पूर्वाह्न में गर्म किया हुआ जल अपराह्न में सचित्त हो जाता है। जिनदास महत्तर का भी यही अभिमत रहा है । टीकाकार ने इसके बारे में कोई चर्चा नहीं की है। ओधनियुक्ति आदि ग्रंथों में अचित्त वस्तु के फिर से सचित्त होने का वर्णन मिलता है। जल की योनि अचित्त भी होती है।
सूत्रकृताङ्ग (२.३.५६) के अनुसार जल के जीव दो प्रकार के होते हैं-वात-योनिक और उदक-योनिक। उदक-योनिक जल के जीव उदक में ही पैदा होते हैं । वे सचित्त उदक में ही पैदा हों, अचित्त में नहीं हों ऐसे विभाग का आधार नहीं मिलता क्योंकि वह अचित्त-योनिक भी है। इसलिए यह सूक्ष्म दृष्टि से विमर्शनीय है। प्राणी-विज्ञान की दृष्टि से यह बहुत ही महत्व का है।
भगवान् महावीर ने कहा है - "साधु के सामने ऐसे अवसर, ऐसे तर्क उपस्थित किए जा सकते हैं --'अन्य दर्शनियों द्वारा मोक्ष का सम्बन्ध खाने-पीने के साथ नहीं जोड़ा गया है और न सचित्त-अचित्त के साथ । पूर्व में तप तपने वाले तपोधन कच्चे जल का सेवन कर ही मोक्ष प्राप्त हुए। वैसे ही नमि आहार न कर सिद्ध हुए और रामगुप्त ने आहार कर सिद्धि प्राप्त की। बाहुक कच्चा जल पीकर सिद्ध हुए और तारागण ऋषि ने परिणत जल पीकर सिद्धि प्राप्त की। प्रासिल ऋषि, देविल ऋषि तथा द्वैपायन और पराशर जैसे जगत् विख्यात और सर्व सम्मत महापुरुष कच्चे जल, बीज और हरी वनस्पति का भोजन कर सिद्ध हो चुके हैं'।" उन्होंने पुनः कहा है-"यह सुनकर मन्द बुद्धि साधु उसी प्रकार विषादादि को प्राप्त हो जाता है जिस प्रकार कि बोझ आदि से लदा हुआ गधा, अथवा
आग्न आदि उपद्रवों के अवसर पर लकड़ी के सहारे चलने वाला लूला पुरुष ।" महावीर के उपदेश का सार है कि अन्य दर्शनियों के द्वारा सिद्धान्तों की ऐसी आलोचना होने पर घबराना नहीं चाहिए । उत्तराध्ययन में कहा है -“अनाचार से घृणा करने वाला लज्जावान् संयमी प्यास से पीड़ित होने पर सचित्त जल का सेवन न करे किन्तु प्रासुक पानी की गवेषणा करे। निर्जन मार्ग से जाता हुआ मुनि तीव्र प्यास से व्याकुल हो जाय तथा मुंह सूखने लगे तो भी दीनतारहित होकर कष्ट सहन करे।"
१-दश० ५.२.२० । २--(क) अ०० पू०६१ : अहवा तत्तं पाणित पुणो सीतलीभूतं आउक्कायपरिणाम जाति तं अपरिणय अणिवुडं, गिम्हे अहो
रत्तेणं सच्चित्ती भवति, हेमन्त-वासासु पुब्वण्हे कतं अवरण्हे । (ख) जि० चू० पृ० ११४ : तत पाणीयं तं पुणो सीतलीभूतमनिव्वुडं भण्णइ, तं च न गिण्हे, रत्ति पज्जुसियं सचित्तीभवइ,
हेमन्तवासासु पुब्वण्हे कयं अवरण्हे सचित्ती भवति, एवं सचित्तं जो भुंजइ सो तत्तानिब्वुडभोई भवइ । ३ --ठा० ३.१०१ : तिविहा जोणी पग्णत्ता तं जहा सचित्ता अचित्ता मोसिया। एवं एगिदियाणं विलिदियाणं समुच्छिमपंचिदिय
तिरिक्खजोणियाणं समुच्छिममणुस्साण य । ४-सूत्र०१.३.४.१-५ : आहंसु महापुरिसा, पुवि तत्सतवोधणा ।
उदएण सिद्धिमावन्ना, तत्थ मंदो विसीयइ ॥ अभुंजिया नमी विदेही, रामगुते य भुंजिआ । बाहुए उदगं भोच्चा, तम्हा नारायणे रिसी ॥ आसिले देविले चेव, दीवायण महारिसी । पारासरे दगं भोच्चा, बीयाणि हरियाणि य ॥ एए पुवं महापु रिसा, आहिया इह संमता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा, इइ मेयमणुस्सुअं ॥ तत्थ मंदा विसीयंति, वाहच्छिन्ना व गद्दभा ।
पिटुओ परिसप्पंति, पिट्ठसप्पी य संभमे ॥ ५-उत्त० २.४,५ : तओ पुट्ठो पिवासाए, दोगुंछी लज्जसजए ।
सीओदगं न सेविज्जा, वियडस्सेसणं चरे । छिन्नावाएसु पन्थेसु, आउरे सुपिवासिए । परिसुक्खमुहेऽदीणे, तं तितिक्खे परीसहं ॥
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