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दसवेआलियं ( दशवकालिक)
अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि०३७
३७. आतुर-स्मरण ( आउरस्सरणाणि घ):
सूत्रकृताङ्ग में केवल सरण' शब्द का प्रयोग मिलता है। पर वहाँ चचित विषय की समानता से यह स्पष्ट है कि 'सरण' शब्द से 'आ उरस्सरण' ही अभिप्रेत है। उत्तराध्ययन में 'आउरे सरणं' पाठ मिलता है।
'सरण' शब्द के संस्कृत रूप 'स्मरण' और 'शरण' --ये दो बनते हैं । स्मरण का अर्थ है-याद करना और शरण के अर्थ हैं(१) त्राण और (२) घर---आश्रय- स्थान' ।
इन दो रूपों के आधार से पाँच अर्थ निकलते हैं : (१) केवल 'सरण' शब्द का प्रयोग होने से सूत्रकृताङ्ग की चूणि में इसका अर्थ पूर्व-भुक्त काम-क्रीड़ा का स्मरण किया है।
शीला कसूरि को भी यह अर्थ अभिप्रेत है । (२) दशवकालिक के चूर्णिकार अगस्त्यसिंह ने आउर' शब्द जुड़ा होने से इसका अर्थ क्षुधा आदि से पीड़ित होने पर पूर्व-भुक्त
वस्तुओं का स्मरण करना किया है । जिनदास और हरिभद्र सूरि को भी यही अर्थ अभिप्रेत है। (३) उत्तराध्ययन के वृत्तिकार नेमिचन्द्र सूरि ने इसका अर्थ-रोगातुर होने पर माता-पिता आदि का स्मरण करना किया है। (४) दशवकालिक की चूणियों में 'शरण' का भयातुर को शरण देना ऐसा अर्थ है। हरिभद्र सूरि ने दोषातुरों को आश्रय
देना अर्थ किया है। (५) रुग्ण होने पर आतुरालय या आरोग्यशाला में भर्ती होना यह अर्थ भी प्राप्त है १२ ।। इस प्रकार 'आउस्सरण' के पाँच अर्थ हो जाते हैं । तीन ‘स्मरण' रूप के आधार पर और दो 'शरण' रूप के आधार पर।
'आतुर' शब्द का अर्थ है-'पीडित' । काम, क्षुधा, भय आदि से मनुष्य आतुर होता है और आतुर दशा में वह उक्त प्रकार की सावद्य चेष्टाएँ करता है । किन्तु निर्ग्रन्थ के लिए ऐसा करना अनाचार है।
प्रश्न उठता है— शत्रुओं से अभिभूत को शरण देना अनाचार क्यों है ? इसके उत्तर में चूर्णिकार कहते हैं- "जो साधु स्थान-- आश्रय देता है, उसे अधिकरण दोष होता है । यह एक बात है । दूसरी बात यह है कि उसके शत्रु को प्रद्वेष होता है ।" इसी तरह आरोग्यशाला में प्रवेश करना साधु को न कल्पने से अनाचार है" ।
१----सूत्र० १.६.२१ : प्रासंदी पलियंके य, णिसिज्जं च गिहतरे ।
संपुच्छणं सरणं वा, त विज्ज! परिजाणिया ॥ २-सूत्र० १.६.१२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, २० । ३-उत्त० १५.८ : मन्तं मूलं वि विहं वेज्जचिन्तं, वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं ।
आउरे सरणं तिगिच्छियं च, तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥ ४-हा० टी० ५० ११७-१८ : आतुरस्मरणानि ......"आतुरशरणानि वा। ५-अ० चि०४ : ५७ । ६-सू० चू० पृ० २२३ : सरणं पुन्वरतपुवकोलियाणं । ७–सू० १.६.२१ टीका ५० १८२ : पूर्वक्रीडितस्मरणम् । ८-अ० चू० पृ० ६१ : छुहादीहि परीसहेहि आउरेणं सितोदकादिपु ब्वभुत्तसरणं । ६ -- (क) जि० चू० पृ० ११४ : आउरीभूतस्त पुब्वभुत्ताणुसरणं ।
(ख) हा० टी०प० ११७ : क्षुधाद्यातुराणां पूर्वोपभुक्तस्मरणानि । १०-उत्त० १५.८ ने० टी०प० २१७ : सुबव्यत्ययाद् 'आतुरस्य' रोगपीडितस्य स्मरणं हा तात ! हा मातः !' इत्यादिरूपम्। ११- (क) अ० चू० पृ० ६१ : सहि वा अभिभूतस्स सरणं भवति वारेत्ति तोवासं वा देति ।
(ख) जि० चू० पू० ११४ : अहवा सत्तूहि अभिभूतस्स सरणं देइ, सरणं णाम उवस्सए ठाणंति वुत्तं भवइ..।
(ग) हा० टी०प०१८ : आतुरशरणानि वा--दोषातुराश्रयदानानि । १२- (क) अ० चू० पृ०६१ : अहवा सरणं आरोग्गसाला तत्थ पवेसो गिलाणस्स ।
(ख) जि० चू० पृ० ११४ : अहवा आउरस्सरणाणि त्ति आरोग्गसालाओ भण्णंति । १३ -(क) अ० चू• पृ०६१ : तत्य अधिकरण दोसा, पदोसं वा ते सत्तू जाएज्जा ।
(ख) जि०० पू० ११४ : तत्थ उवस्सए ठाणं तस्स अहिकरणदोसो भवति सो वा तस्स सत्त पओसमावज्जेज्जा। १४ --जि. चू० पृ० ११४ : तत्थ न कप्पइ गिलाणस्स पविसिउँ एतमवि तेसि अणाइण्णं ।
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