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________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा ) ८५ अध्ययन ३ : श्लोक ७-८ टि० ३८-४२ श्लोक ७: ३८. अनिवृत, सचित्त, आमक ( अणिव्वुडे ख, सच्चित्ते ", आमए ) इन तीनों का एक ही अर्थ है । जिस वस्तु पर शस्त्रादि का व्यवहार तो हुअा है पर जो प्रासुक-जीव-रहित-नहीं हो पायी हो उसे अनित कहते हैं । निर्वत' का अर्थ है शान्त । अनित--अर्थात् जिससे प्राण अलग नहीं हुए हैं । जिस पर शस्त्र का प्रयोग नहीं हुआ, अत: जो वस्तु मूलतः ही सजीव है उसे सचित्त कहते हैं । आमक का अर्थ है-कच्चा । जो फलादि कच्चे हैं, वे भी सचित्त होते हैं। इस तरह 'अनिर्वत' और 'आमक' ये दोनों शब्द सचित्त के पर्यायवाची हैं । ये तीनों शब्द सजीवता के द्योतक हैं । ३६. इक्षु-खण्ड ( उच्छुखंडे ख ) : यहाँ सचित्त इक्षु-खण्ड के ग्रहण को अनाचार कहा है । ५.१.७३ में इक्षु-खण्ड लेने का जो निषेध है, उसका कारण इससे भिन्न है। उसमें फेंकने का अंश अधिक होने से वहाँ उसे अग्राह्य कहा है। चूर्णिकार द्वय और टीका के अनुसार जिसमें दो पोर विद्यमान हों, वह इक्षु-खण्ड सचित्त ही रहता है। ४०. कंद और मूल (कंदे मूले " ) : कंद-मूल तथा मूल-कंद ये दो भिन्न प्रयोग हैं । जहाँ मूल और कंद ऐसा प्रयोग होता है वहाँ वे वृक्ष आदि की क्रमिक अवस्था के बोधक होते हैं । वृक्ष का सबसे निचला भाग मूल और उसके ऊपर का भाग कंद कहलाता है । जहाँ कंद और मूल ऐसा प्रयोग होता है वहाँ कंद का अर्थ शकरकंद आदि कन्दिल जड़ और मूल का अर्थ सामान्य जड़ होता है । ४१. बीज ( बीए ): बीज का अर्थ गेहूँ, तिल आदि धान्य विशेष है। श्लोक ४२. सौवचल ( सोवच्चले क ) इस श्लोक में सौवर्चल, सैन्धव, रोमा लवण, सामुद्र, पांशुक्षार और काला लवण-ये छः प्रकार के लवण बतलाए गए हैं। अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार सौवर्चल नमक उत्तरापथ के एक पर्वत की खान से निकलता था। जिनदास महत्तर इसकी खानों को सेंधा नामक की खानों के बीच-बीच में बतलाते हैं । चरक के अनुसार यह कृत्रिम लवण है। १-(क) अ० चू० पृ० ६२ : अणिन्वुडं...."तं पुण जोवअविप्पजढं, निव्वुडो सांतो मतो आमगं अपरिणतं . 'आमगं सच्चित्तं । (ख) जि० चू० पृ० ११५ : निव्वुडं पुण जीवविष्पजढं भण्णइ, जहा निव्वातो जीवो, पसंतो.त्तवुत्तं भवइ....."आमगं भवति असत्थपरिणयं । (ग) हा० टी० ५० ११८ : अनिर्वृतम्-अपरिणतम् ; ..........."आमकं आमगं सचित्तं । २-(क) अ० चू० पृ० ६२ : उच्छुखंडं दोसु पोरेसु धरमाणेसु अणिध्वुडं । (ख) जि० चू० पृ० ११५ : उच्छुखंडमवि दोसु पोरेसु वट्टमाणेसु अनिव्वुडं भवइ । (ग) हा० टी०प० ११८ 'इक्षुखण्डं' चापरिणतं द्विपर्वान्तं यद्वर्तते । ३ (क) अ० चू० पृ० ६२ : कंदा चमकादतो। (ख) हा० टी० प० ११८ : 'कन्दो'– वज्रकन्दादिः मूलं च' सट्टामूलादि । ४-(क) अ० चू० पृ० ६२ : बीता धण्णविसेसो। (ख) जि० चू० पृ० ११५ : बीजा गोधूमतिलादिणो। ५-अ० चू० पृ० ६२ : सोवच्चलं उत्तरावहे पब्वतस्स लवणखाणीसु संभवति । ६-जि. चू० पृ० ११५ : सोवच्चलं नाम सेंधवलोणपव्वयस्स अंतरंतरेसु लोणखाणीओ भवति । ७-चरक० (सू०) २७.२६६ पृ० २५० पाद-टि०१ : सौवर्चलं प्रसारणोकल्कभक्तलवणसंयोगात् । अग्निदाहेन निर्वृतम्। इति डल्हणः । आयुर्वेद के आचार्य सौवर्चल और बिड़ लवण को कृत्रिम मानते हैं - देखो रसतरंगिणी। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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