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आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि )
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अध्ययन ८ : श्लोक २८ टि०७२-७८
७२. भय को ( भयं ख):
सिंह, साँप आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाला उद्वेग 'भय' कहलाता है'। ७३. अव्यथित ( अव्वहिओ ग ) : __अव्यथित का अर्थ-अहीन, अक्लीव ओर असीदमान-विषाद न करता हुआ है। ७४. देह में उत्पन्न कष्ट को ( देहे दुक्खं घ ) :
. कष्ट दो प्रकार के होते हैं-उदीर्ण-स्वतः उत्पन्न और उदीरित - जान-बूझ कर उत्पादित । यहाँ 'देह' शब्द में सप्तमी विभक्ति है। इसके आधार पर अगस्त्यसिंह ने 'देहे दुक्ख' का अर्थ देह में उत्पन्न दु:ख किया है । जिनदास इस विषय में मौन हैं । हरिभद्र इनका सम्बन्ध इस प्रकार बतलाते हैं - देह होने पर दुःख होता है। देह असार है--यह सोचकर दुःख को सहन करना महा फल का हेतु होता है।
मुनि की अनेक भूमिकाएं हैं । जिन-कल्पी या विशिष्ट अभिग्रहधारी मुनि कष्टों की उदीरणा करते हैं। स्थविर-कल्पी का मार्ग इनसे भिन्न है । वे उत्पन्न कष्टों को सहन करते हैं । अगस्त्यसिंह की व्याख्या इस भूमिका-भेद को 'उत्पन्न' शब्द के द्वारा स्पष्ट करती है। ७५. महाफल ( महाफलं घ):
___ आत्मवादी का चरम साध्य मोक्ष है, इसलिए वह उसीको सबसे महान् फल मानता है। उत्पन्न दुःख को सहन करने का अंतिम फल मोक्ष होता है, इसलिए उसे महाफल कहा गया है ।
श्लोक २८: ७६. सूर्यास्त से लेकर ( अत्थंगयम्मिक ):
यहाँ 'अस्त' के दो अर्थ हो सकते हैं -सूर्य का डूबना-अदृश्य होना अथवा वह पर्वत जिसके पीछे सूर्य छिप जाता है। ७७. पूर्व में ( पुरत्या ख :
अगस्त्य चूणि के अनुसार 'पुरस्तात्' का अर्थ पूर्व दिशा और टीका के अनुसार प्रात:काल है। ७८. ( आहारमइयं ग ):
यहाँ 'मइय' मयट् प्रत्यय के स्थान में है।
१-(क) अ० चू० पृ० १६१: भयं उम्वेगो सीह-सम्पातीतो।
(ख) जि० चू० प० २८३ : 'भयं' सप्पसीहवाघ्रादि वा भवति ।
(ग) हा० टी० ५०२३२ : 'भयं' व्याघ्रादिसमुत्थम् । २---(क) जि० चू० पू०२८३ : अव्वहिओ नाम अहीणो अविक्कीवो असीयमाणोत्ति वृत्त भवति।।
(ख) हा० टी०प०२३२ : 'अव्यथितः' अदीनमनाः सन् । ३- अ० चू० पृ० १९२ : देहो सरीरं तं मि उप्पण्णं दुक्खं । ४–जि० चू० पृ० २८३ : देहे दुक्खं महाफलं । ५- हा० टी० प० २३२ : देहे दुःख महाफलं संचिन्त्येति वाक्यशेषः । तथा च शरीरे सत्येतद खं, शरीरं चासारं, सम्यगतिसामान
च मोक्षफलमेवेदम् । ६-(क) अ० चू० पृ० १६२ : मोक्खपज्जवसाणफलत्तेण महाफलं ।
(ख) जि० चू० पृ० २८३ : महाफलं-महा मोक्खो भण्णइ, तं मोक्खपज्जवसाणं फल मिति। ७-(क) अ० चू०प० १६२ : आइच्चादितिरोभावकरण पच्चयो अत्थो, खेत्तविप्पकरिसभावेण वा अदरिसणमत्थो त गते ।
(ख) जि० चू० पृ० २८३ : अत्थोणाम पवओ, तमिगतो आदिच्चो अस्थगओ, अहवा अचक्खुविसयपत्थो, अत्थंगते आदिच्चे
(ग) हा. टी० ५०२३५ : 'अस्त गत आदित्ये' अस्तपर्वत प्राप्ते अदर्शनीभूते वा । ८-(क) अ० चू० पृ० १६२: पुरत्था वा पुयाए दिसाए।
(ख) हा० टी०प० २३२ : 'पुरस्ताच्चानुद् गते' प्रत्यूषस्यनुदिते । ६-पाइयसद्दमहण्णव पृ०८१८ ।
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