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दसवेआलियं (दशवकालिक)
अध्ययन ८ : श्लोक २७ टि० ६७-७१ प्रकार अमनोज्ञ शब्दों में द्वेष न करे । इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के प्रिय और अप्रिय विषयों में राग और द्वेष न करे । जैसे वाहरी वस्तुओं से राग और द्वेष का निग्रह कर्म-क्षय के लिए किया जाता है, वैसे ही कर्म-क्षय के लिए आन्तरिक दुःख भी सहने चाहिए। ६७. कानों के लिए सुखकर ( कण्णसोहि क ) :
वेणु, वीणा आदि के जो शब्द कानों के सुख के हेतु होते हैं, वे शब्द 'कर्णसौख्य' कहे जाते हैं । ६८. दारुण और कर्कश ( दारुणं कक्कसं ग ) :
जिनदास पूणि के अनुसार 'दारुण' का अर्थ है विदारण करने वाला और कर्कश का अर्थ है शरीर को कृश करने वाले शीत, उष्ण आदि के स्पर्श । इन दोनों को एकार्थक भी माना है । तीव्रता बताने के लिए अनेक एकार्थक शब्दों का प्रयोग करना पुनरुक्त नहीं कहलाता। टीका के अनुसार 'दारुण' का अर्थ अनिष्ट और 'कर्कश' का अर्थ कठिन है । अगस्त्य 'चूणि के अनुसार शीत, उष्ण आदि दारुण स्पर्श हैं और कंकड़ आदि के स्पर्श कर्कश हैं । पहले का सम्बन्ध ऋतु-विशेष और दूसरे का सम्बन्ध मार्ग-गमन से है। ६६. स्पर्श ( फासं ग ):
स्पर्श का अर्थ स्पर्शन-इन्द्रिय का विषय (कठोर आदि) है । इसका दूसरा अर्थ दु:ख या कष्ट भी है। यहाँ दोनों अर्थ किए जा सकते हैं।
श्लोक २७ : ७०. दुःशय्या (विषम भूमि पर सोना) ( दुस्सेज्जं क ) :
जिन पर सोने से कष्ट होता है उन्हें दुःशय्या कहा जाता है । विषमभूमि, फलक आदि दुःशय्या हैं । ७१. अरति ( अरई ख ):
अरति भूख, प्यास आदि से उत्पन्न होती है । टीकाकार ने मोह जनित उद्वेग को 'अरति' माना है ।
१-जि० चू० पृ० २८३ : तत्थ कण्णसोक्खेहि सद्देहिंति एतेण आदिल्लस्स सोइंदियस्स गहणं कयं, दारुणं कक्कसं फासति-एतेण
अंतिल्लस्स फासिदियस्स गहणं कयं, आदिल्ले अंतिल्ले य गहिए सेसावि तस्स मज्झपडिया चक्खूघाणजीहा गहिया, कन्नेहि विरूविहिं रागं ण गच्छेज्जा, एवं गरहा, सेसेसुवि रागं न गच्छेज्जत्ति, जहा एतेसु सद्दाइसु मणुण्णेसु रागं न गच्छेज्जा तहा अमणुण्णेसुवि दोसं न गच्छेज्जा, जहा बाहिरवत्थूसु रागदोसनिग्गहो कम्मखवणत्थं कीरइ तहा कम्मखवणत्यमेव अन्तवट्टियमवि दुक्खं
सहियव्वं । २-जि० चू० पृ० २८३ : कन्नाणं सुहा कन्नसोक्खा तेसु कन्नसोक्खेस वंसीवीणाइसद्देसु ।
(ख) हा० टी० प० २३२ : कर्णसौख्यहेतवः कर्णसौख्याः शब्दा - वेणुवीणादिसंबन्धिनः । ३-जि. ०१० २८३ : दारुणं णाम दारणसोलं दारुणं, कक्कसं नास जो सीउण्हकोसादिफासो सो सरीरं किसं कुव्व ईति कक्कसं,
तं कक्कसं फासं उदिणं काएण अहियासएत्ति, अहवा दारुणसद्दो कक्कससद्दोऽविय एगट्ठा, अच्चस्थनिमित्त पउजमाणा णो
पुणरुत्त भवइ। ४-- हा० टी० प० २३२ : 'दारुणम्' अनिष्टं 'कर्कशं' कठिनम् । ५-अ० चू० पृ० १६१: दारुणः कष्टः तीवः, सीउण्हा तितंकक्कसो, वयस्थो वरात्थाए जो फासो सोवि वयस्थो, तं पण रच्छादि
संकडेसु विपणिमग्गेस वा फरिसितो। ६-सू० १.५.२.२२ । ७-(क) अ० चू० पृ० १६१ : विसमादिभूमिसुदुःखसयणं दुस्सेज्जा ।
(ख) जि० चू० पृ० २८३ : दुसिज्जा नाम विसमभूमिफलगमादी ।
(ग) हा० टी० प० २३२ : 'दुःशय्यां' विषमभूम्यादिरूपाम् । -जि० चू० पृ० २८३ : अरती एतेहि खुप्पिवासादीहिं भवइ । E-हा० टी० प० २३२ : 'अति' मोहनीयोद्भवाम् ।
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