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आवारपणही (आचार - प्रणिधि)
अनुसन्धान के लिए देखिए ५.२.३४ की टिप्पण संख्या ५३ ।
६२. अल्प इच्छा वाला ( अप्पिच्छे ख ) :
जिसके आहार की जितनी मात्रा हो उससे कम खानेवाला 'अल्पेच्छ' अल्प इच्छा वाला कहलाता है' ।
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६३. अल्पाहार से तृप्त होने वाला ( सुहरे
रूक्षवृत्ति, सुसंतुष्ट, अल्पेच्छ और सुभर इनमें कारण भाव - फल- भाव है। रूक्षवृत्ति का फल सुसंतोष, सुसंतोष का अल्पेच्छता और अल्पेच्छता का फल सुभरता है ।
घ
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६५. फोध ( आसुरतं " )
३६५
):
)
अध्ययन ८ : श्लोक २६ टि० ६२-६६
६४. जिन शासन को ( जिणसासणं
जिनशासन को सुनकर अकोष की शिक्षा के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रयोग है विपाकों का वर्णन किया है। जीव चार प्रकार से नारकीय कर्मों का बन्धन करता है। उनमें पहला है उपस्थित होने पर क्रोध न किया जाए इसके लिए जिन शासन में अनेक आलम्बन बतलाए गए हैं, जैसे भिक्षु को गाली दे, मारे-पीटे तब वह सोचे कि यह मेरा अपराध नहीं कर रहा है। मुझे कष्ट दे रहे हैं मेरे किए हुए कर्म । इस प्रकार सोचकर जो गाली और मार-पीट को सहन करता है वह अपनी आत्मा का शोधन करता है । देखिए उत्तराध्ययन ( २.२४-२७) । अगस्त्यसिंह ने अक्रोध की आलम्बनभूत एक गाथा उद्धृत की है :
अक्कोसहगणमारण-धम्मरसाण बालसुलभाण । लाभं मन्नति धीरो, जहुत्तराणं अभावंमि ॥
इसका अर्थ है
देना, पीटना और मारना वे कार्यों के लिए मुलभ है कोई आदमी गाली दे तब भिक्षु यह सोचे कि खैर, गाली ही दी, पीटा तो नहीं। पीटे तो सोचे कि चलो पीटा, पर मारा तो नहीं। मारे तब सोचे कि ख़ैर, मेरा धर्म तो नहीं लूटा । इस प्रकार क्रोध पर विजय पाए ।
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'असुर' शब्द का सम्बन्ध असुर जाति से है । आसुर अर्थात् असुर-संबन्धी । असुर क्रोध प्रधान माने जाते हैं, इसलिए 'आसुर' शब्द कोष का पर्याय बन गया। आसुरत्व अर्थात् क्रोध भाव* ।
श्लोक २६
जिन-वचन में क्रोध के बहुत ही कटु
क्रोध - शीलता । क्रोध का कारण कोई अज्ञानी - मिथ्यादृष्टि पुरुष
६६. श्लोक २६
श्लोक के प्रथम दो चरणों में श्रोत्र इन्द्रिय के श्रोर अन्तिम दो चरणों में स्पर्शन-इन्द्रिय के निग्रह का उपदेश है। इससे मध्यवर्ती शेष इन्द्रिय चक्षु, घ्राण और रसन के निग्रह का उपदेश स्वयं जान लेना चाहिए। जिस प्रकार मुनि मनोज्ञ शब्दों में राग न करे उसी
१ (क) जि० ० ० २०२ अपिण्डो गाम जो जस्स आहारो ताओ आहारयमाणाओ ऊगमाहारेमाणो अग्यियो भवति । (ख) हा० टी० प० २३१ : अल्पेच्छो न्यूनोदरतयाऽऽहारपरित्यागी ।
२- हा० टी० प० २३१ : सुभरः स्यात् अल्पेच्छत्वादेव दुर्भिक्षादाविति फलं प्रत्येकं वा स्यात् ।
३-४१०४.५६७ हि ठानेहि जीवा श्रमुरताते कम्मं पति, कोमसीलाते, तं पाहडसीलयाने संतोकम्येणं निमित्ता
जीवयाते ।
४ – (क) अ० चू० पृ० १६१ : असुराणं एस विसेसेणं ति आसुरो कोहो, तब्भावो आसुरतं ।
(ख) जि० चू० पृ० २८२ ॥
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