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________________ दसवेआलिये (दशवैकालिक) ५७ सन्निधि ( सन्निहि ) इसका शाब्दिक अर्थ है पास में रखना, जमा करना, संग्रह करना। इसका भावार्थ है रातवासी रखना' । मुनि के लिए आगामी काल की चिन्ता से प्रेरित हो संग्रह करने का निषेध किया गया है। ग ) ३६४ श्लोक २४ : ५८. मुधाजीवी ( मुहाजीवी यहाँ अगस्त्य सिंह ने 'मुहाजीवी' का अर्थ मूल्य के बिना जीने वाला अर्थात् अपने जीवन के लिए धन आदि का प्रयोग न करने वाला किया है। अनुसन्धान के लिए देखिए ५.१ की टिप्पण संख्या १०० । ग ५१. असंबद्ध ( अलिप्त ) ( असंबद्ध " ) : अध्ययन ८ : श्लोक २४-२५ टि० ५७-६१ इसका एक अर्थ है - सरस आहार में आसक्त न हो-बद्ध न हो। दूसरा अर्थ है - जिस प्रकार कमल पत्र पानी में लिप्त नहीं होता उसी प्रकार गृहस्थों से निि ६०. जनपद के आश्रित ( जगनिस्सिए घ ) : अगस्त्य चूर्णि के अनुसार मुनि एक कुल या ग्राम के निश्रित न रहे, किन्तु जनपद के निश्रित रहे। जिनदास णि के अनुसार 'जगन्निश्रित' की व्याख्या इस प्रकार है-मुनि गृहस्थ के निश्रित रहे अर्थात् गृहस्थों के घर से जो भिक्षा प्राप्त हो वह ले, किन्तु मंत्र-तन्त्र से जीविका न करे । टीका के अनुसार इसका अर्थ है - त्रस और स्थावर जीवों के संरक्षण में संलग्न" । स्थानाङ्ग में श्रमण के लिए पाँच निश्रा स्थान बतलाए गए हैं छहकाय, गण – गणराज्य, राजा, गृहपति और शरीर भिक्षु इनकी निश्रा में विहार करता है । चूर्णियों के अर्थ टीका की अपेक्षा अधिक मूल है। श्लोक २५ : ६१. रुक्षवृत्ति ( लहवित्ती) : , अगस्त्य पूर्ण के अनुसार 'इति' के दो अर्थ है-संयम के अप्रवृत्ति करने वाला अथवा भने निव्यय आदि क्ष द्रव्यों से जीविका करने वाला" । जिनदास चूर्णि और टीका को दूसरा अर्थ अभिमत है" । ८ १- जि० ० ० २०२ सन्निपतितादीनं दव्वाणं परियासति । २- अ० चू० पृ० १६० : सण्णिधाणं सणिधी उत्तरकालं भुंजीहामित्ति सण्णिचयकरणमणेगदेवसियं तं ण कुब्वेज्ज । ३-अ० चू० पृ० १९० : मुधा अमुल्लेण तथा जीवति मुधाजीवी जहा पढमपिडेसणाए । ४ अ० चू० पृ १६० : असंबद्धो रसादिपडिबंधेहि । ५- (क) जि० चू० पृ० २८२ : असंबद्धे णाम जहा पुक्खरपत्तं तोएणं न संबज्झइ एवं गिहोहिं समं असंबद्धण भवियव्वंति । (ख) हा० टी० प० २३१ : असंबद्धः पद्मिनीपत्रोदकवद्गृहस्थः । Jain Education International ६- - अ० चू० पृ० १६० : जगणिस्सितो इति ण एक्कं कुलं गामं वा णिस्सितो जणपदमेव । ७-००० २०२ 'जयनिनिस्सिए' नाम तत्व पत्ताणि भिसामोतिकाऊण गित्थान निस्साए विहरेजा, न हि समं टाई करेगा। हा० टी० प० २३१ : 'जगन्निश्रितः' चराचरसंरक्षणप्रतिबद्धः । & -ठा० ५।१६२ : धम्मं चरमाणस्स पंच णिस्साथाणा पं० तं - छक्काया गणे राया गाहावती सरीरं । १० प्र० पू० पू० १९१ 1 संजय तस्स अवरोहेण वित्ति जस्स सो हवितो अहवा सुदन्वाणि चणनिष्पावोवादीणि वित्ती जस्स । ११ – (क) जि० चू० पृ० २८२ : णिष्फावको वातिलहदव्वे वित्ती जस्स सो लूदवित्ती भण्णइ, णिच्चं साहुणा लूहवित्तिणा भवियन्वं । (ख) हा० टी० प० २३१ : रूक्ष :- वल्लचणकादिभिर्वृत्तिरस्येति रूक्षदृत्तिः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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