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आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि )
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अध्ययन ८ : श्लोक २२-२३ टि० ५२-५६
श्लोक २२: ५२. सरस ( निट्ठाणं क ): ... जो भोजन सब गुणों से युक्त और वेषवारों से संस्कृत हो उसे निष्ठान कहा जाता है', जैसे -चटनी, मसाला, छौंक (तेमन) आदि । दाल, शाक आदि भोजन के उपकरण भी निष्ठान कहलाते हैं। निष्ठान का भावार्थ सरस है। ५३. नीरस ( रसनिज्जूढं क ) :
रस-नियंढ । जिनका रस चला गया हो उसे 'नियूंढ रस' कहा जाता है। 'निए ढ रस' अर्थात् निकृष्ट या रस-रहित भोजन ।
श्लोक २३:
५४. भोजन में गद्ध होकर विशिष्ट घरों में न जाए ( न य भोयणम्मि गिद्धो कचरे ख ) :
· भोजन से चारों प्रकार के आहार का ग्रहण होता है । भोजन की आसक्ति से मुनि नीच कुलों को छोड़कर उच्च कुलों में प्रवेश न करे और विशिष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए दाता की श्लाघा करता हुआ भिक्षाटन न करे।
५५. वाचालता से रहित होकर ( अयंपिरो ख):
. चणि काल में इसका अर्थ अजल्पनशील रहा है । टीकाकार ने--'धर्म-लाभ' मात्र बोलने वाला-इतना और विस्तृत किया है। भिक्षा लेने से पूर्व 'धर्म-लाभ' कहने की परम्परा आज भी श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक सम्प्रदाय में प्रचलित है।
५६. उञ्छ ( उछ ख ) :
'उञ्छ' शब्द मूलतः कृषि से सम्बन्धित है । सिट्टों या भुट्टों को काटा जाता है उसे 'शिल' कहते हैं और नीचे गिरे हुए धान्यकणों को एकत्र करने को 'उञ्छ' कहते हैं। यह विस्तार पाते-पाते भिक्षा से जुड़ गया और खाने के बाद रहा हुआ शेष भोजन लेना, घर-घर से थोड़ा-थोड़ा भोजन लेना-इनका वाचक बन गया और सामान्यतः भिक्षा का पर्यायवाची जैसा बन गया । महाभारत में भिक्षा के लिए 'उञ्छ' और 'शिल' दोनों शब्द प्रयुक्त हुए हैं ।
दशवकालिक में 'उञ्छ' शब्द का प्रयोग तीन स्थलों में 'अन्नाय' शब्द के साथ और दो स्थलों में स्वतन्त्र रूप से हुआ है।
१-(क) जि. चू० पृ० २८१ : णिट्ठाणं णाम जं सव्वगुणोववेयं सव्वसंभारसंभियं तं णिट्ठाणं भण्णइ।
(ख) हा. टी०प० २३१ : 'निष्ठान' सर्वगुणोपेतं संभृतमन्नम् । २—(क) जि० चू० पृ० २८१ : रसणिज्जूढं णाम जं कदसणं वबगयरसं तं रसणिज्जूढं भण्णइ ।
(ख) हा० टी० प० २३१ : रसं नियूंढमेतद्विपरीतं कदशनम् । ३-जि० चू० पृ० २८१ : भोयणगहणेण चउब्विहस्सवि आहारस्स गहणं कयं, तस्स भोयणस्स गेहीए ण णीयकुलाणि अतिक्कममाणो
उच्चकुलाणि पविसेज्जा। ४-हा० टी० प० २३१ : न च भोजने गृद्धः सन् विशिष्टवस्तुलाभायेश्वरादिकुलेषु मुखमङ्गलिकया चरेत् । ५- (क) अ० चू० पृ० १६० : अजंपणसीलो अयंपुरो।
(ख) जि० चू० पृ० २८१ : अयंपिरो नाम अजंपणसोलो। -६-हा० टी० प० २३१ : अजल्पनशीलो धर्मलाभमात्राभिधायी चरेत् । ७-महा० शान्ति० ३६३.४ : असङ्गतिरनाकाङ्क्षी नित्यभुञ्छशिलाशनः ।
सर्वभूतहिते युक्त एष विप्रो भुजङ्गम! ॥ ८-वश० ६.३.४; १०.१६, चू० २.५ । &-वश०८.२३, १०.१७ ॥
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