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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन ८ : श्लोक २०-२१ टि०४८-५१
श्लोक २०:
४८. श्लोक २०
चूर्णिकार ने इस श्लोक के प्रतिपाद्य की पुष्टि के लिए एक उदाहरण दिया है :
एक व्यक्ति पर-स्त्री के साथ मैथुन सेवन कर रहा था । किसी साधु ने उसे देख लिया । वह लज्जित हुआ और सोचने लगा कि साधु किसी दूसरे को कह देगा, इसलिए मैं उसे मार डालूं । उसने आगे जाकर मार्ग रोका और मौका देखकर साधु से पूछा---'आज तूने मार्ग में क्या देखा?' साधु ने कहा :
बहुं सुणेइ कणेहिं, बहुं अच्छोहि पिच्छइ ।
न य दिळं सुयं सव्वं, भिक्खु अक्खाउमरिहइ ॥ यह सुनकर उसने मारने का विचार छोड़ दिया। इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि सत्य भी विवेकपूर्वक बोलना चाहिए। साधु को झूठ नहीं बोलना चाहिए, किन्तु जहाँ सत्य बोलने से हिंसा का प्रसंग हो वहाँ सत्य भी नहीं बोलना चाहिए। वैसी स्थिति में मौन रखना ही अहिंसक का धर्म है। इसका सम्बन्ध आचाराङ्ग से भी है । वहाँ बताया गया है-पथिक ने साधु से पूछा : 'क्या तुमने मार्ग में मनुष्य, वृषभ, महिष, पशु, पक्षी, साँप, सिंह या जलचर को देखा ? यदि देखा हो तो बताओ।' वैसी स्थिति में साधु जानता हुआ भी 'जानता हूँ'-ऐसा न कहे । किन्तु मौन रहे ।
श्लोक २१:
४६. सुनी हुई ( सुयं ):
किसी के बारे में दूसरों से सुनकर कहना कि 'तू चोर है'-यह सुना हुआ औपघातिक वचन है।
५०. देखी हई ( दिळं ग ):
__ मैंने इसे लोगों का धन चुराते देखा है—यह देखा हुआ औपघातिक वचन है । ५१. गृहस्थोचित कर्म का ( गिहिजोगं घ) :
गहियोग' का अर्थ है-गृहस्थ का संसर्ग या गृहस्थ का कर्म---व्यापार । 'इस लड़की का तूने वैवाहिक सम्बन्ध नहीं किया ?', 'इस लड़के को तूने काम में नहीं लगाया'-ऐसा प्रयत्न गृहियोग कहलाता है।
१-(क) अ० चू० पृ० १६० ।
(ख) जि० चू० पृ० २८१ । २---आ० चू० ३१५५ : तुसिणीए उवेहिज्जा, जाणं वा नो जाणंति वइज्जा। ३-(क) जि० चू० पृ० २८१ : तत्थ सुतं जहा तुमं मए सुओ अट्ठाबद्धो चोरो एवमादि ।
(ख) हा० टी०प० २३१ : यथा----चौरस्त्वमित्यादि। ४.---- (क) जि० चू०प० २८१ : दिट्ठो-दिहोसि मए परदव्वं हरमाणो एवमादि ।
(ख) हा० टी०५० २३१ : यदि वा दृष्टं स्वयमेव । ५-(क) अ० चू०पृ० १६० : गिहिजोगं गिहिसंसरिंग गिहवाबारं वा गिहिजोग । (ख) जि. चू० पृ० २८१ : गिहीहि समं गोगं गिहिजोगं, संसग्गित्ति वुत्तं भवति, अहवा गिहिकम्मं जोगो भण्णइ, तस्स गिहि
कम्माणं कयाणं अकयाणं च तत्थ उवेक्खणं सयं वाऽकरणं, जहा एस दारिया किं न दिज्जइ ? दारगो वा कि न निवे.
सिज्जइ ?, एवमादि । (ग) हा० टी०प० २३१ : 'गहियोग' गृहिसंबन्धं तद्बालग्रहणादिरूपं गृहिव्यापार वा।
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