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आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि )
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अध्ययन ८: श्लोक १६ टि०४३-४७
४३. शरीर के मैल का ( जल्लियं ख) :
_ 'जल्लिय' का अर्थ है शरीर पर जमा हुआ मैल । चूणिद्वय के अनुसार मुनि के लिए उसका उद्वर्तन करना -मैल उतारना विहित नहीं है । पसीने से गलकर मैल उतरता है अथवा ग्लान साधु शरीर पर जमे हुए मैल को उतार सकता है । यहाँ मैल के उत्सर्ग का उल्लेख इन्हीं की अपेक्षा से है। - अगस्त्यसिंह ने 'जाव सरीरभेओ' इस बाश्य के द्वारा 'जल्ल परीपह' की ओर संकेत किया है। इसकी जानकारी के लिए देखिए उत्तराध्ययन (२.३७) ।
श्लोक १६:
४४. ( वा ख ):
सामान्यत: गृहस्थ के घर जाने के भोजन और पानी- ये दो प्रयोजन बालाए हैं। रुग्ण साधु के लिए औषध लाने के लिए तथा इसी कोटि के अन्य कारणों से भी गृहस्थ के घर में प्रवेश करना होता है --यह 'वा' शब्द से सूचित किया गया है।
४५. उचित स्थान में खड़ा रहे ( जयं चिटु ) :
इगका शाब्दिक अर्थ है -- यतनापूर्वक खड़ा रहे। इसका भावार्थ है --गृहस्थ के घर में गुनि झरोखा, राधि आदि स्थानों को देखता हुआ खड़ा न रहे अर्थात् उचित स्थान में खड़ा रहे ।
४६. परिमित बोले (मियं भासे ग):
गृहस्थ के पूछने पर मुनि यतना से एक बार या दो बार बोले अथवा प्रयोजन वश बोले । जो बिना प्रयोजन बोलता है वह भले थोड़ा ही बोले, मितभाषी नहीं होता और प्रयोजनवश अधिक बोलने वाला भी मितभापी है। आहार एषणीय न हो तो उसका प्रतिषेध करे यह भी 'मियं भासे' का एक अर्थ है ।
४७. रूप में मन न करे ( ण य रूवेसु मणं करे घ):
भिक्षाकाल में दान देने वाली या दूसरी स्त्रियों का रूप देखकर यह चिन्तन न करे- इसका आश्चर्यकारी रूप है, इसके साथ मेरा संयोग हो आदि । रूप की तरह शब्द, रस, गन्ध और सशं में भी मन न लगाए --आसक्त न बने ।
१---(क) अ० चू० १० १८६ : जल्लिया मलो, तस्त य जाव सरीरभेदाए नस्थि उत्खट्टणं जदा पुण पस्सेदेण गलति गिलाणाति
कज्जे वा अवकरिसणं तदा। (ख) जि० चू०१० २७६ : जल्लियं नाम मलो, णो कप्पइ उवउ, जो पुण गिम्हकाले पस्सेयो भवति, अण्णमि गिलाणादि
कारणे मलत्थे केरिसो कीरइ तस्स तं गहणं कयंति । २.--(क) जि० चू० पृ० २७६-२८० : अन्नेसु वा कारणेसु पविसिऊण ।
(ख) हा० टी० ५० २३१ : ग्लानादेरौषधार्थ वा । ३--(क) जि० चू० पु० २८० : तत्थ जयं चिट्ठ' नाम तमि बिहदुवारे चिटु', णो आलोयत्थिगलाईणि वज्जयति, अवखेवं सोहयतो
चिट्ठज्जा। (ख) हा० टी०प० २३१ : यतं--गवाक्षकादोत्यनवलोकयन् तिष्ठेदुचितदेशे। ४.--जि० चू०प० २८० : मितं भासेज्जा णाम पुच्छिओ संजओ जयणाए एक्क वा दो वा वारे भासेज्जा। ५---जि० चू० पृ० २८० : कारणणिमित्तं वा भातइ । ६-जि० चू० पृ० २८० : अणेसणं वा पडिसेहवइ । ७–जि० चू० पृ० २८० : रूवं दायगस्स अण्णेसि वा दट्ठ णं तेसु मणं ण कुज्जा, जहा अहो रूवं, जति नाम एतेण सह संजोगो
होज्जत्ति एवमादि ।
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