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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
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अध्ययन ८: श्लोक १८ टि० ३६-४२
३६. उच्चार-भूमि ( उच्चारभूमि " ) :
जहाँ लोगों का अनापात और असं नोक हो अर्थात् लोगों का गमनागमन न हो और लोग न दीखते हों, वह उच्चार–मलोत्सर्ग करने योग्य भूमि है । साधु उसका प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर उसमें प्रवेश करे। ३७. संस्तारक ( संथारं घ):
संस्तारक-भूमि के लिए भी प्रतिलेखन और प्रमार्जन दोनों का विधान है। ३८. आसन का ( आसणं घ):
बैठते समय आसन का प्रतिलेखन करने का विधान है। ४६. यथासमय (धुवं क ):
इसका अर्थ नित्य-नियत समय या यथासमय है । ४०. प्रमाणोपेत ( जोगसा ख ) :
इसका अर्थ अन्यूनातिरिक्त अर्थात् प्रमाणापित है। प्रतिलेखन न हीन करना चाहिए और न अतिरिक्त, किन्तु प्रमाणोपैत करना चाहिए । जैसे योग-रक्त साड़ी का अर्थ प्रमाण-रक्त साड़ी होता है, वैसे ही जोगसा का अर्थ प्रमाण-प्रतिलेखन होता है। व्याख्याओं में इसका मूल अर्थ - 'सामर्थ्य होने पर भी किया गया है। ४१. प्रतिलेखन करे ( पडिलेहेज्मा ) :
प्रतिलेखन का अर्थ है देखना । मुनि के लिए दिन में दो बार (प्रात: और सायं) वस्त्र आदि का प्रतिलेखन करना विहित है। प्रतिलेखन-विधि की जानकारी के लिए उत्तराध्ययन (२६.२२-३१) और ओघनियुक्ति गाथा (२५६-२७५) द्रष्टव्य हैं।
श्लोक १८: ४२. श्लोक १८.
इस श्लोक में निर्दिष्ट उच्चार आदि की तरह अन्य शरीर के अवयव, आहार या उपकरण आदि का भी प्रासुक स्थान में उत्सर्ग करना चाहिए । यह उपाश्रय में उत्सर्ग करने की विधि का वर्णन है ।
१-(क) अ० चू० पृ० १८८ : उच्चारो सरीरमलो तस्स भूमी उच्चारभूमी, तमवि अणावातम संलोगादिविहिणा पडिलेहेज्जा,
पडिले हितपमज्जिते वा आयारेज्ज । (ख) जि० चू०पू० २७६ : उच्चारभूमिमबि अणावायमसंलोयाधिगुणेहि जुत्तं गयमाणो।
(ग) हा० टी०प० २३१ : उच्चारभुवं च-अनापातवदादि स्थण्डिलम् । २.---(क) जि० चू० पृ० २७६ : तहा संथारभूमिपवि परिलहिय पमज्जिय अत्थुरेज्जा।
(ख) हा० टी०प० २३१ : 'संस्तारक' तृणमयादिरूपम् । ३--जि० चू० पृ० १७६ : तहा आसणमवि परिलहिऊण उवविसेज्ज । ४-(क) अ० चू० पृ० १८८ : धुवं णियतं ।
(ख) जि० चू० पृ० २७६ : धुवं णाम जो जस्स पच्चुवेयषणकालो तं संमि णिच्चं ।
(ग) हा० टी० ५० २३० : 'ध्र वं च' नित्यं च यो यस्य काल उक्तोऽनागतः परिभोगे च तस्मिन् । ५-जि० च०५०२७६ : जोगसा नाम सति सामत्थे, बहया जोगसः णाम जं पमाणं भणित ततो पमाणाओ ण होणमहित वा
पडिले हिज्जा, जहा जोगरता साडिया पमाण रसित्ति वृत्त भवइतहर पमाणपहिलेहा जोगसा भण्णई। ६-(क) अ० चू० १० १८८ : जोगसा जोगसामत्थे सति । अहवा उपउज्जिऊण पुब्धि ति जोगेण जोगसा उणातिरित्तपडिलेहणा
वज्जित वा। (ख) हा० टी० प० २३१ : 'योगे सति' सति सामर्थे अन्यूनातिरिक्तम् । ७--(क) जि० चू०प० २७६ : अन्नं वा सरीरावरवं आहारोबकरणादि वा, फासुयं ठाणं 'पडिले हऊण परिटवेज्ज संजए'त्ति, एस
उवस्सए विधी भणिओ। (ख) हा० टी०प०२३१ : उपाश्रयस्थानविधिरुक्तः ।
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