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आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ३८६ अध्ययन ८ : श्लोक १६-१७ टि० ३२-३५ के टीकाकार हरिभद्र सूरि ने 'उत्तिंग' का अर्थ 'कीटिका-नगर' किया है। इन दोनों सूत्रों के शाब्दिक-भेद और आर्थिक-अभेद से एक बड़ा लाभ हुआ है, वह है 'उत्तिग' शब्द के अर्थ का निश्चय । विभिन्न व्याख्याकारों ने 'उत्तिग' शब्द के विभिन्न अर्थ किए हैं, किन्तु प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'उत्तिग' का अर्थ वही होना चाहिए जो 'लयन' का है। इस प्रकार 'लयन' शब्द 'उत्तिग' के अर्थ को कस देता है। इसी अध्ययन के ग्यारहवें श्लोक में जो ‘उत्तिंग' शब्द आया है वह बनस्पति का वाचक है। प्रस्तुत प्रकरण त्रसकाय से संबन्धित है । प्रकरण-भेद से दोनों में अर्थ-भेद है।
श्लोक १६: ३२. सब प्रकार से ( सव्वभावेण ख ):
अगस्त्य धुणि में लिङ्ग, लक्षण, भेद, विकल्प -यह सर्वभाव की व्याख्या है। लिङ्ग आदि सर्व साधनों से जानना, सर्वभाव से जानना कहलाता है। इसका दूसरा अर्थ 'सर्वस्वभाव' किया है। जिनदास पूणि में वर्ण, संस्थान आदि को 'सर्वभाव' माना गया है। वहाँ एक विशेष जानकारी दी गई है कि छद्मस्थ सब पर्यायों को नहीं जान सकता। इसलिए 'सर्वभाव' का अर्थ होगा जिसका जो विषय है उसे पूर्ण रूप से (जानकर)५ । टीकाकार ने इसका अर्थ 'अपनी शक्ति के अनुरूप स्वरूप-संरक्षण किया है ।
श्लोक १७: ३३. पात्र ( पाय ):
यहाँ पात्र शब्द से काष्ठ, तुंबा और मिट्टी—ये तीनों प्रकार के पात्र ग्राह्य हैं ।
३४. कम्बल ( कंबलं ख):
यहाँ कम्बल शब्द से ऊन और सूत –दोनों प्रकार के वस्त्र ग्राह्य हैं। ३५. शय्या ( सेज्जंग):
शय्या का अर्थ है वसति --उपाथय । उसका दिन में दो या तीन बार प्रतिलेखन करने की परम्परा का उल्लेख है।
१-हा० टी० प० २३० : उत्तिगसूक्ष्मां -को टिका-नगरम् । तत्र कोटिका अन्ये च सूक्ष्मसत्त्वा भवन्ति । २-अ० चू० पृ० १८८ : सम्वभावेणलिंगलक्खणभेदविकप्पेणं । ३ -अ० चू० पृ० १८८ : अहवा सब्वसभावेण । ४-जि० चू० पृ २७८ : सव्वप्पगारेहि वण्णसंठाणाईहिं णाऊणंति । ५-जि० चू० पृ० २७८-२७६ : अहवा ण सव्वपरियारहिं छउमत्थो सक्केइ उवलभिउं, कि पुण जो जस्स विसयो? तेण सम्वेण
भावेण जाणिऊणंति। ६-हा० टी०प० २३० : 'सर्वभावेन' शक्त्यनुरूपेण स्वरूपसंरक्षणादिना । ७-(क) अ० चू० पृ० १८८ : पायं लाबुदारुमट्टियामयं ।
(ख) जि० चू० पृ० २७६ : पायग्गहणेण दारुअलाउयमट्टियपायाणं गहणं ।
(ग) हा० टी० ५० २३१ : पात्रग्रहणात् --अलाबुदारुमयादिपरिग्रहः । ८-(क) अ०० पृ० १८८ : कंबलोपदेसेण तज्जातीयं वत्थादि सव्वमुपविट्ठ।
(ख) जि० चू०प० २७६ : कम्बलगहणण उन्नियसोत्तियाण सर्वसि गहणं ।
(ग) हा० टी०प० २३१ : कम्बलग्रहणादूर्णासूत्रमयपरिग्रहः । ६-(क) जि० चू० पृ० २७६ : सेज्जाओ वसइओ भण्णइ, तमवि दुकालं तिकालं वा पडिलेहिज्जा ।
(ख) हा० टी०प० २३१ : 'शय्यां' वसति द्विकालं त्रिकालं च ।
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