________________
पिंडेसणा ( पिण्डषणा)
२०६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १३ टि० ५६-५८ जो आकाशदर्शी होकर चलता है ऊंचा मुंहकर चलता है वह ईर्या समिति का पालन नहीं कर सकता । लोग भी कहने लग जाते हैं— "देखो ! यह श्रमण उन्मत्त की भाँति चल रहा है, अवश्य ही यह विकार से भरा हुआ है ।" जो भावना से उन्नत होता है वह दूसरों को तुच्छ मानता है । दूसरों को तुच्छ मानने वाला लोक-मान्य नहीं होता। ५६. न झुककर ( नावणए क ): ।
अवनत के भी दो भेद होते हैं : द्रव्य-अवनत और भाव-अवनत । द्रव्य-अवनत उसे कहते हैं जो झुककर चलता है। भाव-अवनत उसे कहते हैं जो दीन व दुर्मना होता है और ऐसा सोचता है- "लोग असंयतियों की ही पूजा करते हैं । हमें कौन देगा ? या हमें अच्छा नहीं देगा आदि ।" जो द्रव्य से अवनत होता है वह मखौल का विषय बनता है । लोग उसे बगुलाभगत कहने लग जाते हैं । जैसे—बड़ा उपयोग-युक्त है कि इस तरह नीचे झुक कर चलता है । भाव से अवनत वह होता है जो क्षुद्र भावना से भरा होता है । श्रमणों को दोनों प्रकार से अवनत नहीं होना चाहिए । ५७. न हृष्ट होकर ( अप्पहि8 ख):
जिनदास महत्तर के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'अल्प-हृष्ट' या 'अहृष्ट' बनता है । अल्प शब्द का प्रयोग अल्प और अभाव-इन दो अर्थों में होता है । यहाँ यह अभाव के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
अगस्त्य चूणि और टीका के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'अप्रहृष्ट' होता है । 'प्रहर्ष' विकार का सूचक है इसलिए इसका निषेध है। ५८. न आकुल होकर ( अगाउले ख ) :
___ चलते समय मन नाना प्रकार के संकल्पों से भरा हो या श्रुत-सूत्र और अर्थ का चिन्तन चलता हो, वह मन की आकुलता है । विषय-मोग सम्बन्धी बातें करना, पूछना या पढ़े हुए ज्ञान की स्मृति करना वाणी की आकुलता है । अंगों की चपलता शरीर की आकुलता है। मुनि इन सारी आकुलताओं को वर्जकर चले५ । टीकाकार ने अनाकुल का अर्थ क्रोधादि रहित किया है ।
१-जि० चू० पृ० १७२ : दव्युन्नतो इरियं न सोहेइ, लोगोवि भण्णइ-उम्मत्तओविव समणओ वजइ सविगारोत्ति, भावेवि अस्थि
से माणो, तुट्ठत्तेणं अस्थि, सम्बन्धो अथित्ति, अहवा मदावलित्तो ण सम्मं लोगं पासति, सो एवं अणुवसंतत्तणेण न लोग
सम्मतो भवति । २-(क) अ० चू० पृ० १०२, १०३ : अवणतो चतुम्विहो-दव्वोणतो जो अवणयसरीरो गच्छति । भावोणतो कीस ण लभामि?
विरूवं वा लभामि ? अस्संजता पूतिज्अंति' इति दीणदूमणो।...''दब्वावणतो 'अहो ! जीवरक्खणुज्जुत्तो, सव्वपासंडाण
वा णीयमप्पाणं जाणति' त्ति जणो वएज्जा। (ख) जि० चू० पृ० १७२ : ......दव्वोणओ जो ओणयसरीरो खुज्जो वा, भावोणयो जो दीणदुम्मणो, कीस मिहत्था भिक्खे
न देति ?, णवा सुन्दरं देति ? असंजते वा पूयति,... - दव्वोणतेणवि उड्डुवंति जहा अहो जीवरक्खणुवउत्तो सुव्वत्त एस (तेण) गो, अहवा सव्वपासंडाणं नीययरं अप्पाणं जाणमाणो वक्कमति एवमादि, एवं करेज्जा, भावोणते एवं
चेवेति, जहा किमेतस्स पब्वइतेण? कोहोऽणेण न णिज्जिओत्ति एवमादी। (ग) हा० टी० ५० १६६ : 'नावनतो' द्रव्यभावाभ्यामेव, द्रव्यानवनतोऽनीचकायः भावानवनतः अलब्ध्यादिनाऽदीनः......
द्रव्यावनत: बक इति संभाव्यते भावावनत: क्षुद्रसत्त्व इति । ३ -जि. चू० पृ० १७२,७३ : अप्पसद्दो अभावे वट्टइ, थोवे य, इह पुण अप्पसद्दो अभाव दट्ठव्वो। ४ - (क) अ० चू० पृ० १०३ : ण पहिट्ठो अपहिट्ठो।
(ख) हा० टी० ५० १६६ : 'अप्रहृष्टः' अहसन् । ५-जि० चू० १० १७३ : अणाउलो नाम मणवयणकायजोगेहि अणाउलो। माणसे अमृदुहद्राणि सुत्तत्थतदुभयाणि वा अचितंतो
एसणे उवउत्तो गच्छेज्जा, वायाए वा जाणिवि ताणि अट्टमट्टाणि ताणि अभासमाणेण पुच्छणपरियट्टणादीणि य अकुव्वमाणेण
हिंडियव्वं, कायेणावि हत्थणट्ठादीणि अकुस्वमाणो संकुचियहत्थपामो हिंडेज्जा । ६-हा० टी० ५० १६६ : 'अनाकुलः' क्रोधादिरहितः ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org