________________
दसवेआलियं (दशवकालिक)
२१० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १४ टि० ५६-६३
५६. इन्द्रियों को अपने अपने विषय के अनुसार ( इंदियाणि जहाभागंग ) :
जिनदास चुणि में जहाभागं' के स्थान पर 'जहाभावं' ऐसा पाठ है। पाठ-भेद होते हुए भी अर्थ में कोई भेद नहीं है । 'यथाभाव' का अर्थ है-इन्द्रिय का अपना-अपना विषय । सुनना कान का विषय है, देखना चक्षु का विषय है, गन्ध लेना घ्राण का विषय है, स्वाद जिह्वा का विषय है, स्पर्श स्पर्शन का विषय है। ६०. दान्त कर ( दमइत्ता घ):
कानों में पड़ा हुआ शब्द, आंखों के सामने आया हुआ रूप तथा इसी प्रकार दूसरी इन्द्रियों के विषय का ग्रहण रोका जा सके यह सम्भव नहीं किन्तु उनके प्रति राग-द्वेष न किया जाय यह शक्य है । इसी को इंद्रिय-दमन कहा जाता है ।
श्लोक १४: ६१. श्लोक १४:
इस श्लोक में मुनि आहार की गवेषणा के समय मार्ग में किस प्रकार चले जिससे लोक दृष्टि में बुरा न लगे और प्रवचन की भी लघुता न हो उसकी विधि बताई गई है। ६२. उच्च-नीच कुल में ( कुलं उच्चावयं घ):
कुल का अर्थ सम्बन्धियों का समवाय या घर है । प्रासाद, हवेली आदि विशाल भवन द्रव्य से उच्च-कुल कहलाते हैं । जाति, धन. विद्या आदि से समृद्ध व्यक्तियों के भवन भाव से उच्च-कुल कहलाते हैं। तृणकुटी, झोपड़ी आदि द्रव्य से अवच-कूल कहलाते हैं और जाति, धन, विद्या आदि से हीन व्यक्तियों के घर भाव से अवच-कुल कहलाते हैं । ६३. दौड़ता हुआ न चले ( दवदवस्स न गच्छज्जा क )
दवदव' का अर्थ है दौड़ता हुआ। इस पद में द्वितीया के स्थान में षष्ठी है। सम्भ्रान्त-गति का निषेध संयम-विराधना की दृष्टि से किया गया है और दौड़ते हए चलने का निषेध प्रवचन-लाधव और संयम-विराधना दोनों दृष्टियों से किया गया है। संभ्रम (५.१.१) चित्त-चेष्ठा है और द्रव-द्रव कायिक चेष्टा । इसलिए द्रुतगति का निषेध सम्भ्रान्त-गति का पुनरुक्त नहीं है।
१-(क) जि० चू० १० १७३ : जहाभावो नाम तेसिदियाणं पत्तेयं जो जस्स विसयो सो जहभावो भण्णइ, जहा सोयस्स सोयव्वं
चक्खुस्स 8व्वं घाणस्स अग्घातियव्वं जिब्भाए सादेयव्वं फरिसस्स फरिसणं । (ख) हा० टी० ५० १६६ : 'यथाभागं' यथाविषयम् ।
(ग) अ० चू० पृ० १०३ : इंदिया णि सोतादीणि ताणि जहाभागं जहाविसतं, सोतस्स भागी सोतव्वं । २–जि० चू० पृ० १७३ : ण य सक्का सई असुणितेहि हिंडिउं, कि तु जे तत्थ (गदोसा ते बज्जेयव्वा, भणियं च .."न सक्का
सहमस्सोउ, सोतगोयरमागयं । रागद्दोसा उजे तत्थ, ते बुहो परिवज्जए ॥१॥" एवं जाव फासोत्ति । ३-- अ. चू० पृ० १०३ : कुलं संबंधिसमवातो, तदालयो वा। ४-हा० टी० ५० १६६ : उच्च-द्रव्यभावभेदाद्विधा ---द्रव्योच्चं धवलगृहवासि भावोच्च जात्यादियुक्तम्, एवमवचमपि द्रव्यतः
कुटीरकवासि भावतो जात्याविहीनमिति । ५-(क) जि० चू० पृ० १७३ : दवदवस्स नाम दुयं दुयं ।
(ख) हा० टी० ५० १६६ : 'द्रुतं-द्रुत। त्वरितमित्यर्थः ।
(ग) हैम० ८.३.१३४ : क्वचिद् द्वितीयादेः- इति सूत्रेण द्वितीया स्थाने षष्ठी। ६-(क) जि० चू० पृ० १७३ : सीसो आह–णणु असंभंतो अमुच्छिओ एतेण एसो अत्थो गओ, किमत्थं पुणो गहणं ?, आयरिओ
भणइ-पुव्वभणियं , जं भण्णति तत्थ कारणं अत्थि, जं तं हेट्ठा भणियं तं अविसेसियं पंथे वा गिहतरे वा, तत्थ संजमविराहणा पाहण्णेण भणिया, इह पुण गिहाओ गिहंतरं गच्छमाणस्स भण्णइ, तत्थ पायसो संजमविराहणा भणिया, इह
पुण पवयणलाघव संकणाइदोसा भवंतित्ति ण पुणरुत्तं । (ख) हा० टी०प० १६६ : दोषा उभयविराधनालोकोपधातादय इति ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org