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________________ दसवे आलियं (दशवेकालिक) ग ५१. कलह ( कलहं ) : इसका अर्थ है - वाचिक झगड़ा' । १२. युद्ध ( के स्थान ) को (जुद्धं युद्ध आयुध आदि से होने वाली शस्त्रों की लड़ाई को युद्ध कहा जाता है । ५३. दूर से डाल कर जाये ( दूरओ परिवज्जए ): मुनि ऊपर बताए गए प्रसङ्ग या स्थान का दूर से परित्याग करे, क्योंकि उपर्युक्त स्थानों पर जाने से आत्म-विराधना और संयमविराधना होती है । समीप जाने पर कुत्ते के काट खाने की, गाय, बैल, घोड़े एवं हाथी के सींग, पैर आदि से चोट लग जाने की संभावना रहती है। यह आत्म-विराधना है। ५४. श्लोक १३ : ) ): नाही मारपीट कलह और युद्ध में यह अन्तर है कि वचन की लड़ाई की कलह और कीड़ा करते हुए बच्चे धनुष् से बाण चलाकर मुनि को आहत कर सकते हैं। वंदन आदि के समय पात्रों को पैरों से फोड़ सकते है उन्हें छीन सकते हैं। हरिभद्रसूरि के अनुसार यह संयम विराधना है। मुनि कलह आदि को सहन न कर सकने से बीच में बोल सकता है। इस प्रकार अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं । इलोक १३ : २०८ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) श्लोक १३ टि० ५१-५५ क ५५. न ऊंचा मुंह कर ( अणुन्नए ) : घ इस श्लोक में भिक्षा चर्चा के समय मुनि की मुद्रा कैसी रहे यह बताया गया है । उन्नत दो प्रकार के होते हैं- द्रव्य उन्नत और भाव उन्नत । जो मुंह ऊँचा कर चलता है- आकाशदर्शी होता है उसे 'द्रव्य उन्नत' कहते हैं । जो दूसरों की हंसी करता हुआ चलता है, जाति आदि आठ मदों से मत्त ( अभिमानी ) होता है वह 'भाव उन्नत' कहलाता है । मुनि को भिक्षाचर्या के समय द्रव्य और भाव - दोनों दृष्टियों से अनुन्नत होना चाहिए । Jain Education International १- (क) अ० चू० पृ० १०२ : कलहो बाधा - समधिक्खेवादि । ० चू० पृ० १७२ : कलहो नाम वाइओ । (ग) हा० टी० प० १६६ : 'कलहं' वाक्प्रतिबद्धम् । (ख) जि० २ (क) अ० चू० पृ० १०२ : जुद्ध आयुहादीहि हणाहणी । (ख) जि०० पृ० १७२ खुर्द नाम जं आउहादीहि (ग) हा० टी० प० १६६ : "युद्ध" खड्गादिभिः । ३ - हा० टी० प० १६६ : 'दूरतो' दूरेण परिवर्जयेत्, आत्मसंयमविराधनासम्भवात् । ४ – (क) अ० चू० पृ० १०२ : अपरिवज्जणे दोसो साणो खाएज्जा, गावी मारेज्जा, गोण हत-गता वि, चेडरुवाणि परिवारेतु बंदताणि भाणं विराहेज्जा आहणेज्ज वा इट्टालादिणा, कलहे अणदृहियासो किंचि हणेज्ज भणेज्ज वा अजुत्तं, जुद्ध उम्मत्तकंडादिणा हम्मेज्ज | (ख) जि० चू० पृ० १७२ : सुणओ धाएज्जा, गावी मारिज्जा, गोणो मारेज्जा, एवं हय-गयाणवि मारजादिदोसा भवंति, बालरुवाणि पुण पाए पडियाणि भाणं भिविज्जा, कट्ठाकट्ठवि करेज्जा, धणुविप्यमुक्केण वा कंडेण आहणेज्जा तारिसं अमहियासंती भणिज्जा, एवमादि दोवा । (ग) हा० टी० प० १६६ गोप्रभृतिभ्य आत्मविराधना, हिम्भस्थाने बन्दनाद्यागमनपतन भण्डनप्रतुनादिना संयमविराधना, सर्वत्र चात्मपात्रभेदादिनोभयविराधनेति । ५.- अ० चू० पृ० १०२ : इदं तु सरीर चित्तगत दोसपरिहरणत्थमुपदिस्सति । ६- जि० चू० पृ० १७२ : 'दव्वण्णओ भावुण्णओ दव्वण्णओ जो उष्णतेण मुहेण गच्छइ, भावण्णओ हिट्ठो विहसियं तो गच्छद्द, जाति आदिएहि वा अट्ठह मदेह मत्तो । ********* For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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