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________________ पिंडेसणा ( पिण्डषणा) २०७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ११-१२ टि० ४६-५० यहाँ हरिभद्र सूरि 'तथा च वृद्ध व्याख्या' कहकर इसी आशय को स्पष्ट करने वाली कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं । ये दोनों चूर्णिकारों की पंक्तियों से भिन्न हैं। इससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके सामने चूणियों के अतिरिक्त कोई दूसरी भी वृद्ध-व्याख्या ४६. श्रामण्य में सन्देह हो सकता है ( सामण्णम्मि य संसओ घ ) : इस प्रसङ्ग में श्रामण्य का मुख्यार्थ ब्रह्मचर्य है । इन्द्रिय-विषयों को उत्तेजित करने वाले साधन श्रमण को उसकी साधना में संदिग्ध बना देते हैं । विषय में आसक्त बना हुआ श्रमण ब्रह्मचर्य के फल में सन्देह करने लग जाता है । इसका पूर्ण क्रम उत्तराध्ययन में बतलाया गया है । ब्रह्मचर्य की गुप्तियों का पालन न करने वाले ब्रह्मचारी के शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती है । चारित्र का नाश होता है, उन्माद बढ़ता है, दीर्घकालिक रोग एवं आतंक उत्पन्न होते हैं और वह केवली-प्रज्ञप्त-धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। श्लोक ११ : ४७. एकान्त ( मोक्ष-मार्ग ) का (एगतं घ ) : सभी व्याख्याकारों ने 'एकान्त' का अर्थ मोक्ष-मार्ग किया है । ब्रह्मचारी को विविक्त-शय्यासेवी होना चाहिए, इस दृष्टि से यहाँ 'एकान्त' का अर्थ विविक्त-चर्या भी हो सकता है। श्लोक १२: ४८. श्लोक १२: इस श्लोक में भिक्षा-चर्या के लिये जाता हुआ मुनि रास्ते में किस प्रकार के समागमों का या प्रसंगों का परिहार करता हुआ चले, यह बताया गया है। वह कुत्ते, नई ब्याई हुई गाय, उन्मत्त बैल, अश्व, हाथी तथा क्रीड़ाशील बालकों आदि के समागम से दूर रहे। यह उपदेश आत्म-विराधना और संयम-विराधना दोनों की दृष्टि से है। ४६. ब्याई हुई गाय ( सूइयं गावि क ) : प्रायः करके देखा गया है कि नव प्रसूता गाय आहननशील-मारनेवाली होती है। ५०. बच्चों के क्रीड़ा-स्थल ( संडिभंग ): जहाँ बालक विविध क्रीड़ाओं में रत हों (जैसे धनुष् आदि से खेल रहे हों), उस स्थान को 'संडिब्भ' कहा जाता है । १-हा० टी० ५० १६५ : तथा च वृद्धव्याख्या --वेसादिगयभावस्स मेहुणं पीडिज्जइ, अणुवओगेणं एसणाकरणे हिंसा, पाडुप्पायणे अन्नपुच्छणअवलवणाऽसच्चवयणं, अणणुण्णायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं सव्ववयपीडा, दब्वसामन्ने पुण संसयो उण्णिक्खमणेण ति। २-(क) अ० चू० पृ० १०२ : समणभावे वा संदेहो अप्पणो परस्स वा । अप्पणो 'विसयविचालितचित्तो समणभाव छड़े मि मा वा?' इति संदेहो, परस्स एवंविहत्थाणविचारी किं पन्वतितो विडो वेसच्छण्णो ? ति संसयो। (ख) जि० चू० पृ० १७१: सामण्णं नाम समणभावो, तंमि समणभावे संसयो भवई, कि ताव सामण्णं धरेमि ? उदाह उप्पल्व यामित्ति? एवं संसयो भवइ । (ग) हा० टी०प०१६५ : 'श्रामण्ये च' श्रमणभावे च द्रव्यतो रजोहरणाविधारणरूपे भूयो भाववतप्रधानहेतौ संशयः । ३- उत्त० १६.१ : बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दोहकालियं वा रोगायक हवेज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । ४.-(क) प्र० चू० पृ० १०२ : एगंतो णिरपवातो मोक्खगामी मग्गो णाणादि । (ख) हा० टी० ५० १६५ : 'एकान्तं' मोक्षम् । ५--(क) जि० चू० पृ० १७१ : सूविया गावी पायसो आहणणसीला भवइ । (ख) हा० टी० ५० १६६ : 'सूतां गाम्' अभिनवप्रसूतामित्यर्थः । ६-(क) अ० चू० पृ० १०२ : डिब्भाणि चेडरूवाणि णाणाविहेहि खेलणएहिं खेलंताणं तेसि समागमो संडिब्भं । (ख) जि० चू० पृ० १७१-७२ : संडिब्भं नाम बालरूवाणि रमंति धर्हि । (ग) हा० टी० ५० १६६ : 'संडिम्भं' बालक्रीडास्थानम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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