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दसवेआलियं (दशवकालिक) ___ २०६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १० टि० ४३-४५ जाने पर उसका बहाव दूसरी ओर हो जाता है, खेती सूख जाती है, वैसे ही वेश्याओं के हाव-भाव देखनेवालों के ज्ञान, दर्शन और चारित्र का स्रोत रुक जाता है और संयम की खेती सूख जाती है।
श्लोक १० : ४३. अस्थान में ( अणायणे क ):
सावध, अशोधि-स्थान और कुशील-संसर्गये अनायतन के पर्यायवाची नाम हैं। इसका प्राकृत रूप दो प्रकार से प्रयुक्त होता है-अणाययण और अणायण । अणाययण के यकार का लोप और अकार की संधि करने से अणायण बनता है। ४४. बार-बार जाने वाले के संसर्ग होने के कारण ( संसग्गोए अभिक्खणं ख ):
इसका सम्बन्ध 'चरंतस्स' से है । 'अभीक्ष्ण' का अर्थ है बार-बार । अस्थान में बार-बार जाने से संसर्ग (सम्बन्ध) हो जाता है। संसर्ग का प्रारम्भ दर्शन से और उसकी परिसमाप्ति प्रणय में होती है। पूरा क्रम यह है -दर्शन से प्रीति, प्रीति से रति, फिर विश्वास
और प्रणय। ४५. व्रतों की पीड़ा ( विनाश ) ( वयाणं पीला ग ) :
पीड़ा' का अर्थ विनाश अथवा विराधना होता है । वेश्या-संसर्ग से ब्रह्मचर्य-व्रत का विनाश हो सकता है किन्तु सभी व्रतों का नाश कैसे संभव है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए चूणिकार कहते हैं-ब्रह्मचर्य से विचलित होने वाला श्रामण्य को त्याग देता है, इसलिए उसके सारे व्रत टूट जाते हैं। कोई श्रमण श्रामण्य को न भी त्यागे, किन्तु मन भोग में लगे रहने के कारण उसका ब्रह्मचर्य-व्रत पीड़ित होता है । वह चित्त की चंचलता के कारण एषणा या ईर्या की शुद्धि नहीं कर पाता, उससे अहिंसा-व्रत की पीड़ा होती है। वह इधर-उधर रमणियों की तरफ देखता है, दूसरे पूछते हैं तब झूठ बोलकर दृष्टि-दोष को छिपाना चाहता है, इस प्रकार सत्य-व्रत की पीड़ा होती हैं । तीर्थङ्करों ने थमण के लिए स्त्री-संग का निषेध किया है। स्त्री-संग करने वाला उनकी आज्ञा का भंग करता है, इस प्रकार अचौर्य-व्रत की पीड़ा होती है। स्त्रियों में ममत्व करने के कारण उसके अपरिग्रह-व्रत की पीड़ा होती है। इस प्रकार एक ब्रह्मचर्य-व्रत पीड़ित होने से सब व्रत पीड़ित हो जाते हैं।
१-(क) जि० चू० पृ० १७१ : दवविसोत्तिया जहा सारणिपाणियं कयवराइणा आगमसोते निरुद्ध अण्णतो गच्छइ, तओ तं
सस्सं सुक्खइ, सा दव्वविसोत्तिया, तासि वेसाणं भावविप्पेक्खियं णट्टहसियादी पासंतस्स णाणदंसणचरित्ताणं आगमो
निरु भति, तओ संजमसस्सं सुक्खइ, एसा भावविसोत्तिया। (ख) हा० टी० १० १६५: विस्रोतसिका' तद्रूपसंदर्शनस्मरणापध्यानकचवरनिरोधतः ज्ञानश्रद्धाजलोज्झनेन संयमस स्य
शोषफला चित्तविक्रिया। २-ओ० नि० ७६४ :
सावज्जमणायतणं असोहिठाणं कुसीलसंसग्गी।
एगट्ठा होति पदा एते विवरीय आययणा ॥ ३--(क) अ० चू० पृ० १०१ : तम्मि 'चरन्तस्स' गच्छन्तस्त संसग्गी' संपको "संसग्गीए अभिक्खणं" पुणो पुणो। किंच
संदसणेण पिती पीतीओ रती रतीतो वीसंभो।
वीसंभातो पणतो पंचविहं वड़ई पेम्म । (ख) जि० चू० पृ० १७१: वेससामंतं अभिक्खणं अभिक्खणं एंतजंतस्स ताहि समं संसग्गी जायति, भणियं च
संदसणाओ पीई पीतीओ रती रती य वीसंभो ।
वीसंभाओ पणओ पंचविहं वडई पेम्मं ॥ ४- (क) अ० चू० १० १०२ : वताणं बंभवतपहाणाण पीला किंचिदेव विराहणमुच्छेदो वा।
(ख) जि० चू०पृ० १७१ : पीडानाम विणासो।
(ग) हा० टी० ५० १६५ : 'व्रतानां' प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा तदाक्षिप्तचेतसो भावविराधना । ५ -(क) अ० चू० पृ० १०२ : वताणं बंभवतपहाणाण पोला किंचिदेव विराहणमुच्छेदा वा समणभावे वा संदेहो अप्पणो परस्स
वा। अप्पणो 'विसयविचालितचित्तो समणभावं छड्डे मि मा वा?' इति संदेहो, परस्स एवं विहत्थाणविचारी कि पव्वतितो विडो वेसच्छण्णो?' ति संसयो। सति संदेहे चागविचित्तीकतस्स सव्वमहव्वसपोला, अहउप्पम्वतति ततो वयच्छित्ती, अणुप्पब्वयंतस्स पीडा वयाण, तासु गयचित्तो रियं ण सोहेति त्ति पाणातिपातो। पुच्छितो कि जोएसि?' ति अवलवति
मुसावातो, अदत्तादाणमणणुग्णातो तित्थकरेहि, मेहुणे विगयभावो, मुच्छाए परिग्गहो वि। (ख) जि. चू० पृ० १७१ : जई उपिणक्खमइ तो सव्ववया पीडिया भवंति, अहवि ण उण्णिक्खमइ तोवि तग्गयमाणसस्स
भावाओ मेहणं पीडियं भवइ, तग्गयमाणसो य एसणं न रक्खइ, तत्थ पाणाइवायपीडा भवति, जोएमाणो पुच्छिज्जइ-. कि जोएसि? ताहे अवलवइ, ताहे मुसावायपीडा भवति, ताओ य तित्थगरेहि णाणुण्णायाउत्ति का अदिण्णादाणपीडा भवइ, तासु य ममत्तं करेंतस्स परिग्गहपीडा भवति ।
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