________________
पिडेसणा (पिण्डैषणा)
२०५ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६ टि० ३६-४२
श्लोक: ३६. श्लोक ६-११
भिक्षा के लिए निकले हुए साधु को कैसे मुहल्ले से नहीं जाना चाहिए इसका वर्णन 8 वें श्लोक के प्रथम दो चरण में हुआ है। वहाँ वेश्या-गह के समीप जाने का निषेध है । इस श्लोक के अन्तिम दो चरणों तथा १० वें श्लोक में वेश्या-गृह के समीप जाने से जो हानि होती है, उसका उल्लेख है। ११ वें श्लोक में दोष-दर्शन के बाद पुनः निषेध किया गया है । ४०. ब्रह्मचर्य का वशवर्ती मुनि (बंभचेरवसाणुए ख ) :
___अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार इसका अर्थ-'ब्रह्मचर्य का वशवर्ती' होता है और यह मुनि का विशेषण है' । जिनदास महत्तर ने 'बंभचेरवसाणुए' ऐसा पाठ मानते हुए भी तथा टीकाकार ने 'बंभचेरवसाणए' पाठ स्वीकृत कर उसे 'वेससामंते' का विशेषण माना है और इसका अर्थ ब्रह्मचर्य को वश में लाने ( उसे अधीन करने ) वाला किया है। किन्तु इसे 'वेससामंते' का विशेषण मानने से 'चरेज्ज' क्रिया का कोई कर्ता शेष नहीं रहता, इसलिए तथा अर्थ-संगति की दृष्टि से यह साधु का ही विशेषण होना चाहिए। अगस्त्य-चूणि में 'बंभचारिवसाणुए' ऐसा पाठान्तर है। इसका अर्थ है --ब्रह्मचारी-आचार्य के अधीन रहने वाला मुनि । ४१. वेश्या बाड़े के समीप ( वेससामंते क ):
जहाँ विषयार्थी लोग प्रविष्ट होते हैं अथवा जो जन-मन में प्रविष्ट होता है वह 'वेश' कहलाता है । इस 'वेश' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-नीच स्त्रियों का समवाय । अमरकीति ने 'वेश' का अर्थ वेश्या का बाड़ा किया है।
अभिधान चिन्तामणि में इसके तीन पर्यायवाची नाम हैं- वेश्याश्रय, पुरं, वेश।
जिनदास महत्तर ने 'वेस' का अर्थ वेश्या किया है। टीकाकार भी इसी का अनुसरण करते हैं किन्तु शाब्दिक दृष्टि से पहला अर्थ ही संगत है । 'सामन्त' का अर्थ समीप है । समीप के अर्थ में 'सामन्त' शब्द का प्रयोग आगमों में बहुत स्थलों में हुआ है। जिनदास कहते हैं—साधु के लिये वेश्या-गृह के समीप जाना भी निषिद्ध है । वह उसके घर में तो जा ही कैसे सकता है१२ । ४२. विस्रोतसिका ( विसोत्तिया क ):
विस्रोतसिका का अर्थ है—सारणिनिरोध, जलागम के मार्ग का निरोध या किसी वस्तु के आने का स्रोत रुकने पर उसका दूसरी ओर मुड़ जाना३ । चूर्णिकार विस्रोतसिका की व्याख्या करते हुए कहते हैं : जैसे - कूड़े-करकट के द्वारा जल आने का मार्ग रुक
१-अ० चू० पृ० १०१ : 'बंभचेरवसाणुए' बंभचेरं मेहुणवज्जणवतं तस्स वसमणुगच्छति जं बंभचेरवसाणगो साधू । २-(क) जि० चू० पृ० १७० : जम्हा तंमि वेससामन्ते हिंडमाणस्स बंभचेरव्वयं वसमाणिज्जतित्ति तम्हा तं वेससामंतं बंभचेर
वसाणुगं भण्णइ, तमि बंभचेरवसाणुए। (ख) हा० टी० ५० १६५ : ब्रह्मचर्यवशानयने (नये) ब्रह्मचर्य -मैथुन बिरतिरूपं वशमानयति आत्मायत्तं करोति दर्शनाक्षेपा
दिनेति ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् । ३ -- अ० चू० पृ० १०१ : बंभचारिणो गुरुणो तेसि वसमणुगच्छतीति बंभचेर (?चारि) वसाणुए। ४–० चू० १० १०१ : 'वेससामन्ते' पविसंति तं विसयस्थिणो त्ति वेसा, पविसति वा जणमणेसु वेसो। ५-अ० चू० पृ० १०१ : स पुण णीयइत्थिसमवातो। ६-५० ना० श्लो० ३६ का भाष्य १० १७ : वेशे वेश्यावाटे भवा वेश्या। ७ - अ. चि० ४.६६ : वेश्याऽऽश्रयः पुरं वेशः । -जि० चू० पृ० १७० : वेसाओ दुवक्खरियाओ, अण्णाओवि जाओ दुवक्खरियाकम्मेसु वट्ट ति ताओवि वेसाओ चेव ।
-हा० टी० ५० १६५ : 'न चरेद्वेश्यासामन्ते' न गच्छेद गणिकागहसमीपे । १०-अ० चू० पृ० १०१ : सामंते समोवे वि, किमुत तम्मि चेव । ११–भग० १.१ पृ० ३३ : अदूरसामन्ते । १२-जि० चू० पृ० १७० : सामतं नाम तासि गिहसमीवं, तमवि वज्जणीयं, किमंग पुण तासि गिहाणि ? १३–अ० चू० पृ० १०१ : विस्रोतसा प्रवृत्तिः–विस्रोतसिका विसोत्तिका । सा चउब्विहा—णामढवणातो गतातो । दवविसोत्तया
कटलिचेहि सारणिणिरोहो अण्णतोगमणमुदगस्स । भावविसोत्तिता वेसित्थिसविलासवियेक्खित-हसित-विन्भमेहि रागावरुद्वमणोसमाहिसारणीकस्स नाण-दसण-चरित्तसस्सविणासो भवति ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org