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आयारपणिही (आचार-प्रणिधि)
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अध्ययन ८: श्लोक ५४-६०
५४-चित्तभिति न निज्झाए
नारि वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दठणं दिदि पडिसमाहरे॥
चित्रभित्ति न निध्यायेत, नारों वा स्वलङ्कृताम् । भास्करमिव दृष्ट्वा, दृष्टि प्रतिसमाहरेत् ॥५४॥
५४ - चित्र-भिति५३ (स्त्रियों के चित्रों से चित्रित भित्ति) या आभूषणों से सुसज्जित५४ स्त्री को टकटकी लगाकर न देखे । उन पर दृष्टि पड़ जाए तो उसे वैसे खींच ले जैसे मध्याह के सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि स्वयं खिंच जाती है।
५५-हत्थपायपडिच्छिन्न
कण्णनासविगप्पियं५५ अवि १५वाससई नारि बंभयारी विवज्जए॥
प्रतिच्छिन्न-हस्तपादां, विकल्पित-कर्णनासाम् । अपि वर्षशता नारी, ब्रह्मचारी विवर्जयेत् ॥३५॥
५५ -- जिसके हाथ पैर कटे हुए हों, जो कान-नाक से विकल हो वैसी सौ वर्ग की बूढ़ी नारी से भी ब्रह्मचारी दूर रहे।
पर
५६-विभूसा इत्थिसंसग्गी
पणीयरसभोयणं नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं
विभूषा स्त्री-संसर्गः, प्रणीत-रसभोजनम् । नरस्यात्मगवेषिणः, विषं तालपुटं यथा ॥५६॥
५६ -आत्मगवेषी १५७ पुरुष के लिए विभूषा१५८, स्त्री का संसर्ग और प्रणीतरस का भोजन तालपूट-विष१६० के समान
जहा॥
५७--अंगपच्चंगसंठाणं
चारुल्लवियपेहिय । इत्थीणं तं न निज्झाए कामरागविवड्डणं ॥
अङ्ग-प्रत्यङ्ग संस्थानं, चारुल्लपितप्रेक्षितम् । स्त्रीणां तन्न निध्यायेत्, कामरागविवर्धनम् ।।५७॥
५७ -स्त्रियों के अङ्ग, प्रत्यङ्ग, संस्थान ६', चारु-भासित (मधुर बोली) और कटाक्ष६२ को न देखे उनकी ओर ध्यान न दे, क्योंकि ये सब काम-राग को बढ़ाने वाले हैं।
५८–विसएस मणुन्नेस
पेम नाभिनिवेसए। अणिच्चं तेसि विन्नाय परिणामं पोग्गलाण उ॥
विषयेषु मनोज्ञेषु, प्रेम नाभिनिवेशयेत् । अनित्यं तेषां विज्ञाय, परिणामं पुद्गलानां तु ॥५॥
५८-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पुद्गलों के परिणमन को १६३ अनित्य जानकर ब्रह्मचारी मनोज्ञ विषयों में रागभाव न करे१६४ ॥
५६-पोग्गलाण परीणामं पुद्गलानां परिणाम,
तेसि नच्चा जहा तहा। तेषां ज्ञात्वा यथा तथा । विणीयतण्हो विहरे - विनीततृष्णो विहरेत्, सीईभूएण अप्पणा ॥ शीतीभूतेनात्मना ॥५६॥
५६-इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गलों के परिणमन को, जैसा है वैसा जानकर अपनी आत्मा को उपशान्त कर१६५ तृष्णा-रहित हो विहार करे।
६०-जाए१६६ सद्धाए निक्खंतो
परियायट्ठाणमुत्तमं तमेव अणुपालेज्जा
आयरियसम्मए॥
यया श्रद्ध या निष्क्रान्तः पर्यायस्थानमुत्तमम् । तामेवाऽनुपालयेत्, गुणान् आचार्यसम्मतान् ।६०॥
६०--जिस श्रद्धा से ६° उत्तम प्रव्रज्यास्थान के लिए घर से निकला, उस श्रद्धा को६८ पूर्ववत् बनाए रखे और आचार्य-सम्मत१६६ गुणों का अनुपालन करे।
गुणे
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