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________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ३८१ अध्ययन ८: श्लोक ५४-६० ५४-चित्तभिति न निज्झाए नारि वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दठणं दिदि पडिसमाहरे॥ चित्रभित्ति न निध्यायेत, नारों वा स्वलङ्कृताम् । भास्करमिव दृष्ट्वा, दृष्टि प्रतिसमाहरेत् ॥५४॥ ५४ - चित्र-भिति५३ (स्त्रियों के चित्रों से चित्रित भित्ति) या आभूषणों से सुसज्जित५४ स्त्री को टकटकी लगाकर न देखे । उन पर दृष्टि पड़ जाए तो उसे वैसे खींच ले जैसे मध्याह के सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि स्वयं खिंच जाती है। ५५-हत्थपायपडिच्छिन्न कण्णनासविगप्पियं५५ अवि १५वाससई नारि बंभयारी विवज्जए॥ प्रतिच्छिन्न-हस्तपादां, विकल्पित-कर्णनासाम् । अपि वर्षशता नारी, ब्रह्मचारी विवर्जयेत् ॥३५॥ ५५ -- जिसके हाथ पैर कटे हुए हों, जो कान-नाक से विकल हो वैसी सौ वर्ग की बूढ़ी नारी से भी ब्रह्मचारी दूर रहे। पर ५६-विभूसा इत्थिसंसग्गी पणीयरसभोयणं नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं विभूषा स्त्री-संसर्गः, प्रणीत-रसभोजनम् । नरस्यात्मगवेषिणः, विषं तालपुटं यथा ॥५६॥ ५६ -आत्मगवेषी १५७ पुरुष के लिए विभूषा१५८, स्त्री का संसर्ग और प्रणीतरस का भोजन तालपूट-विष१६० के समान जहा॥ ५७--अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्लवियपेहिय । इत्थीणं तं न निज्झाए कामरागविवड्डणं ॥ अङ्ग-प्रत्यङ्ग संस्थानं, चारुल्लपितप्रेक्षितम् । स्त्रीणां तन्न निध्यायेत्, कामरागविवर्धनम् ।।५७॥ ५७ -स्त्रियों के अङ्ग, प्रत्यङ्ग, संस्थान ६', चारु-भासित (मधुर बोली) और कटाक्ष६२ को न देखे उनकी ओर ध्यान न दे, क्योंकि ये सब काम-राग को बढ़ाने वाले हैं। ५८–विसएस मणुन्नेस पेम नाभिनिवेसए। अणिच्चं तेसि विन्नाय परिणामं पोग्गलाण उ॥ विषयेषु मनोज्ञेषु, प्रेम नाभिनिवेशयेत् । अनित्यं तेषां विज्ञाय, परिणामं पुद्गलानां तु ॥५॥ ५८-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पुद्गलों के परिणमन को १६३ अनित्य जानकर ब्रह्मचारी मनोज्ञ विषयों में रागभाव न करे१६४ ॥ ५६-पोग्गलाण परीणामं पुद्गलानां परिणाम, तेसि नच्चा जहा तहा। तेषां ज्ञात्वा यथा तथा । विणीयतण्हो विहरे - विनीततृष्णो विहरेत्, सीईभूएण अप्पणा ॥ शीतीभूतेनात्मना ॥५६॥ ५६-इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गलों के परिणमन को, जैसा है वैसा जानकर अपनी आत्मा को उपशान्त कर१६५ तृष्णा-रहित हो विहार करे। ६०-जाए१६६ सद्धाए निक्खंतो परियायट्ठाणमुत्तमं तमेव अणुपालेज्जा आयरियसम्मए॥ यया श्रद्ध या निष्क्रान्तः पर्यायस्थानमुत्तमम् । तामेवाऽनुपालयेत्, गुणान् आचार्यसम्मतान् ।६०॥ ६०--जिस श्रद्धा से ६° उत्तम प्रव्रज्यास्थान के लिए घर से निकला, उस श्रद्धा को६८ पूर्ववत् बनाए रखे और आचार्य-सम्मत१६६ गुणों का अनुपालन करे। गुणे Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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