________________
दसवेआलियं (दशवकालिक)
३८०
अध्ययन ८ : श्लोक ४७-५३
४७--अप्पत्तिय जेण सिया अप्रीतियन स्यात्,
आसु कुप्पेज्ज वा परो। आशु कुप्येद्वा परः। सव्वसो तं न भासेज्जा सर्वशस्तां न भाषेत, भास अहियगामिणि ॥ भाषामहितगामिनीम् ॥४७।।
४७ --जिससे अप्रीति उत्पन्न हो और दूसरा शीघ्र कुपित हो ऐसी अहितकर भाषा सर्वथा २६ न वोले।
४८–दिद मियं असं दिद्ध दृष्टां मितामसंदिग्धां,
पडिपुन्नं वियं जियं। प्रतिपूर्णा व्यक्तां चिताम् । अय पिरमणुन्विग्गं
अजल्पाकीमनुहिग्नां, भास निसिर अत्तवं ॥ भाषां निसृजेदात्मवान् ॥४८॥
४८--आत्मवान् १३०, दृष्ट१३१, परिमित१३२, असंदिग्ध, प्रतिपूर्ण१३३, व्यक्त, परिचित, वाचालता-रहित और भय-रहित भाषा बोले।
४६- १3५आयारपन्नत्तिधरं
आचार-प्रज्ञप्ति-धर, दिट्टिवायमहिज्जगं । वृष्टिवादमधीयानम् । वइविक्खलियं नच्चा वाग्विस्खलितं ज्ञात्वा, न तं उवहसे मुणी॥ न तमुपहसेन्मुनिः ॥४६।।
४६ - आचारांग और प्रज्ञप्तिभगवती को धारण करने वाला तथा दृष्टिवाद को पढ़नेवाला३६ मुनि बोलने में स्खलित हुआ है ३० ( उसने वचन, लिङ्ग और वर्ण का विपर्यास किया है) यह जान कर मुनि उसका उपहास न करे।
५०-१६नक्खत्तं समिणं जोगं
निमित्तं मंत भेसजं। गिहिणो तं न आइक्खे भूयाहिगरणं
पयं ॥
नक्षत्रं स्वप्नं योग, निमित्त मंत्र-भेषजम्, गृहिणस्तन्नाचक्षीत, भूताधिकरणं पदम् ॥५०॥
५०.-नक्षत्र18, स्वप्नफल १६०, वशीकरण°४१, निमित्त१४२, मन्त्र १४3 और भेषज-- ये जीवों की हिंसा के १४४ स्थान हैं, इसलिए मुनि गृहस्थों को इनके फलाफल न बताए ।
५१-अन्नट्ठ पगडं
भएज्ज उच्चारभूमिसंपन्न इत्थीपसुविज्जिय
लयणं अन्यार्थ प्रकृतं लयनं, सयणासणं। भजेत शयनासनम् ।
उच्चारभूमिसम्पन्न, ॥ स्त्रीपशुविजितम् ॥५१॥
५१- मुनि दूसरों के लिए बने हुए१४५ गृह१४६, शयन और आसन का सेवन करे । वह गृह मल-मूत्र-विसर्जन की भूमि से युक्त तथा स्त्री और पशु से रहित ४७ हो।
५२-विवित्ता य भवे सेज्जा विविक्ता च भवेच्छय्या,
नारीणं न लवे कहं। नारीणां न लपेत् कथाम् । गिहिसंथवं न कुज्जा गृहि-संस्तवं न कुर्यात्, कुज्जा साहहिं संथवं ॥ कुर्यात साधुभिः संस्तवम् ॥५२॥
५२-जो एकान्त स्थान हो वहाँ मुनि केवल स्त्रियों के बीच व्याख्यान न दे४८ । मुनि गृहस्थों से परिचय न करे, परिचय साधुओं से करे |
५३-५°जहा कुक्कुडपोयस्स यथा कुक्कुटपोतस्य,
निच्चं कुललओ भय। नित्यं कुललतो भयम् । एवं खु बंभयारिस्स एवं खलु ब्रह्मचारिण:, इत्थीविग्गहओ भयं ॥ स्त्रीविग्रहतो भयम् ॥५३॥
५३ --जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को १५१ सदा बिल्ली से भय होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय होता
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org