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आवारपणही ( आचार - प्रणिधि)
४० राइणिएस विषयं पजे
-
वसीलयं समयं न हायएज्जा । कुम्मो व्व अल्लीणपलीणगुतो परवकमेज्जा तवसंजमम्मि ||
४१ - निद्द चन
संपहासं
मिहोकहाहि
सज्झायम्मि
४२-जोगं च
जुजे
जुत्तो य
अट्ठ
न
य
चिट्ठ ेज्जा
४६ अि
समणधम्मम्मि अणलसो धुवं ।
लहड
४३ – १७ इहलोगपारत्तहियं
जे
बहुस्सुयं पुच्छेज्जत्थविणिच्छयं
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बहुमन्नेज्जा विवज्जए ।
न रमे
रओ सया ॥
४५ – १२३न पक्खओ न
नेव किचाण
भासमाणस्स
पिट्रिमंसं मायामो
समणधम्मम्मि
४४. हर पार्य च कार्य च
पणिहाय अल्लीणगुशो सगासे गुरुणो
न
११३
अणुत्तरं ॥
सोम्यई । पशुवासेज्जा
॥
जिइंदिए ।
निसिए
मुणी ॥
पुरओ
पिटूओ ।
ऊरु समासेज्जा
गुरुतिए ।
न भासेज्जा
अंतरा ।
खाएज्जा विवज्जए ।
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रात्निकेषु विनयं प्रपुनीत वशीलतां सततं न हापयेत् । कूर्म इवालीनप्रलीन गुप्तः, पराक्रामेत् तपस्संयमे ॥ ४० ॥
निद्रां च न बहु मन्येत, संग्रहासं विवर्जयेत्।
मिथ: कथासु न रमेत, स्वाध्याये रतः सदा ||४१ ||
योगं च भ्रमणध
युञ्जीतानलसो ध्रुवम् ।
स्वधमणधर्म,
अर्थ लभतेतरम् ॥४२॥
इहलोकपरत्रहित,
येन गच्छति मुगतिम् । पर्युपासीत
पृच्छेदर्थविनिश्चयम् ||४३||
हस्तं पादं कार्य
प्रणिधाय जितेन्द्रियः ।
गुप्त नित्
सकाशे मुनिः ॥४४॥
न पक्षतः न पुरतः,
नैव कृत्यानां पृष्ठतः ।
न च ऊरु समाश्रित्य,
तिष्ठेद् गुर्वन्ति ॥४५॥
अपृष्टो न भाषेत,
भाषमाणस्यान्तरा ।
पृष्ठमांसं न खादेत् मायामृषाविवर्जयेत् ॥४६॥
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अध्ययन ८ : श्लोक ४०-४६
४० -- पूजनीयों ( आचार्य, उपाध्याय और दीक्षा - पर्याय में ज्येष्ठ साधुओं) के प्रति विनय का प्रयोग करे । ध्रुवशीलता ( अष्टादश सहस्र शीलाङ्गों "") की कभी हानि न करे । कुर्म की तरह आलीन- - गुप्त और प्रलीन गुप्त हो तप और संयम में पराक्रम करे ।
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४१ निद्राको बहुमान न दे अट्ट
११०
१११
हास का वर्जन करे मैथुन को कवा में रमण न करे, सदा स्वाध्याय में रत रहे ।
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४२ मुनिवरहित हो धमणधर्म में योग ( मन, वचन और काया) का यथोचित १४ प्रयोग करे । श्रमण-धर्म में लगा आमृति अनुत्तर फल को प्राप्त होता
है ।
४३ - जिस श्रमणधर्म के द्वारा इहलोक और परलोक में हित होता है, मृत्यु के पश्चात् सुगति प्राप्त होती है, उसकी प्राप्ति के लिए यह बहु की पपासना करे और अर्थ विनिश्चय १६ के लिए प्रश्न करे ।
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४४ जितेन्द्रिय मुनि हाथ पैर और शरीर को संयमित कर १२१, आलीन (न अतिदूर और न अतिनिकट) और गुप्त (मन और वाणी से संत होकर गुरु के समीप
बैठे |
४५ – आचार्य आदि के बराबर न बैठे, आगे और पीछे भी न बैठे। गुरु के समीप उनके ऊरु से अपना ऊरु सटाकर १२४ न बैठे ।
४६ -- बिना पूछे न बोले १२५, बीच में १२६ न बोले, पृष्ठमांस -- चुगली न खाए १२७ और कपटपूर्ण असत्य का वर्जन करे।
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