SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ६१ - तवं चिमं संजनजोगवं च सज्झायजोगं च सया अहिट्ठए । सूरे व सेणाए समतमा उहे अलमप्यणो होइ अलं परेसि ॥ ६२ - सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो अपावभावस्स तवे रयस्स । विसुराई जं सिमलं पुरेकर्ड समीरिय रुपमलं व जोइणा ॥ ६३ -- से तारिसे दुक्खस हे जिइंदिए सुवेण पुतं अममे अकिचणे । विरायई कम्मघणम्मि अवगए कणिपुडावगमे व चंदिमा ॥ 350 त्ति बेमि । Jain Education International ३८२ तपश्चेदं संयमयोगं च, स्वाध्यायोगं च सदाऽपिष्ठेत् । शूर इव सेनया समाप्तायुधः, अलमात्मने भवत्यलं परेभ्यः ॥ ६१ ॥ स्वाध्याय सद्ध्यानरतस्य त्रायिणः, अपापभावस्य तपसि रतस्य । विशुध्यते यत् तस्य मलं पुराकृतं, समीरितं रूप्यमलमिव ज्योतिषा ।। ६२ ।। सासह ि श्रुतेन युक्तोऽममोsकिञ्चनः । विराजते कर्मधनेऽपगते, कृत्स्नाभ्रपुटावगमे इन्द्रमाः ॥ ६३॥ इति ब्रवीमि । For Private & Personal Use Only अध्ययन इलोक ६१-६३ ६१ - जो मुनि इस तप, संयम - योग १७२ और स्वाध्याय योग में 13 सदा प्रवृत्त रहता है १४ वह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसी प्रकार समर्थ होता है जिस प्रकार सेना से घिर जाने पर आयुधों से सुसज्जित १७५ वीर । ६२ - स्वाध्याय और सद्ध्यान में १७ लीन, त्राता, निष्पाप मन वाले और तप में रतमुनिका पूर्व संचित मल उसी प्रकार विशुद्ध होता है जिस प्रकार अग्नि द्वारा तपाए हुए सोने का मल । १८८१ १८२ - र ६३ - जो पूर्वोक्त गुणों से युक्त है, दुःखों को सहन करने वाला है, जितेन्द्रिय है, ता है, ममत्व और ञ्चन है, वह कर्म रूपी बादलों के दूर होने पर उसी प्रकार शोभित होता है जिस प्रकार सम्पूर्ण अभ्रपटल से वियुक्त चन्द्रमा । -95% ऐसा मैं कहता है। www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy