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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ८०. ओले (कर): आकाश से गिरने वाले उदक के कठिन ढेले ' । आन्तरिक्ष-जल को शुद्धोदक कहते हैं। ८१. भूमि को भेदकर निकले हुए जल-बिन्दु ( हरतगुगं ) जिनदास ने इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है- जो भूमि को भेदकर ऊपर उठता है उसे हरतनु कहते हैं । यह सीली भूमि पर स्थित पात्र के नीचे देखा जाता है । हरिभद्र ने लिखा है भूमि को उद्भेदन कर जो जल-बिन्दु तृणाग्र आदि पर होते हैं वे हरतनु है । व्यास्याओं के अनुसार बिन्दु ये के होते हैं। ८२. शुद्ध - उदक ( सुद्धोदगं ) : ८३. जल से भींगे ( उदओल्लं ) : जल के ऊपर जो भेद दिये गये हैं उनके बिंदुओं से आई – गीला है । ८४. जल से स्निग्ध ( ससिणिद्धं ) : १५१ जो निम्ता से युक्त हो उसे सस्निग्ध कहते हैं उसका अर्थ है जल-बिंदु रहित आईला उन गोली वस्तुओं को जिनसे ज बिंदु नहीं गिरते, 'सस्निग्ध' कहते हैं । ८५. आमर्श संस्पर्श ( श्रीमुसेज्जा संफुसेज्जा ) : आमुस ( आ + मृश् ) थोड़ा या एक बार स्पर्श करना आमर्श है; संफुस ( सम् + स्पृश् ) अधिक या बार-बार स्पर्श करना संस्पर्श है" । अध्ययन ४ सूत्र ११ टि०८०-८६ ६. आपीड़न प्रपीड़न ( आवीलेज्जा पवीलेन्जा ) : आवील (आ+पी ) थोड़ा या एक बार निचोड़ना, दबाना पवील [ पी] प्रपीड़न अधिक या बार-बार निचोड़ना, दबाना | ६ : १ (क) अ० चू० पृ० ८८ वरिसोदगं कढिणीभूतं करगो । (ख) हा० टी० प० १५३ : करकः कठिनोदकरूपः । 1 २० ० ० १५५ हरत भूमि भेतून उद सोय उगाइ तिताए भूभीए विएस हेडा पोति । ३० टी० ० १५२ हरणायादिषु भवति । ४ श्र० चू० पृ० ८८ : किंचि समिद्ध भूमि भेत्तूण कहिचि समस्सयति सफुसितो सिणेहविसेसो हरतणुतो । ५ (क) अ० चू० पृ८८ : अंतरिक्खपाणितं सुद्धोदगं । (ख) जि० चू० पृ० १५५ : अंत लिक्खपाणियं सुद्धोदगं भण्णइ । (ग) हा० टी० प० १५३ शुद्धोदकम् अन्तरिक्षोदकम् । (क) अ० चू० पृ० ८८ तोल्लं उदओल्लं वा कातं सरीरं 1 (ख) जि० चू० पृ० १५५ : जं० एतेसि उदगभेएहिं बिंदुसहियं भवइ तं उदउल्लं भन्नई । (ग) हा० टी० प० १५३ उनका चेह मलविन्दुतुषारादि अनन्तरोदितोदकभेदसंमिश्रतः। (क) अ० चू० पृ० ८८ ससणिद्ध [म] बिन्दुगं ओल्लं ईसि । (ख) जि० चू० पृ० १५५ : ससिद्धि जं न गलति तितयं तं ससणिद्ध भइ । (ग) हा० टी० प० १५३ : अत्र स्नेहनं स्निग्धमिति भावे निष्ठाप्रत्ययः, सह स्निग्धेन वर्तत इति सस्निग्धः, सस्निग्धता चेह बिन्दुर हितानन्तरो तिरमिता । -(क) अ० चू० पृ० ८८ : ईसि मुसनमामुसणं समेच्चमुसणं सम्मुसणं । (ब) जि० ० पृ० १५५ आमुसगं नाम ईषत्स्पर्शनं आसन अवागवार फरिसणं आमुसणं पुणो पुणो संपुसणं । (ग) हा० टी० प० १५३ : सकृदोषद्वा स्पर्शनमामर्षणम् अतोऽन्यत्संस्पर्शनम् । Jain Education International (ख) जि० चू० पृ० १५५ (ग) हा० टी० प० १५३ (क) अ० चू० पृ० ८८ : इसि पोलणमापीलणं, अधिकं पीलनं निप्पोलणं । ईसि निपोलणं आपीलणं अच्चत्थं पोलणं पवीलणं । सदोषद्वा पीडनमा पोडनमतोऽन्या पीडनम्। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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