SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवेआलियं ( दशर्वकालिक ) १५२ ८७. प्रास्फोटन प्रस्फोटन ( अक्खोडेज्जा पक्खोडेज्जा ) : अक्खोड ( आ + स्फोटय् ) - थोड़ा या एक बार झटकना । पक्खोड ( प्र + स्फोटय् ) - बहुत या अनेक बार झटकना' । ८. आतापन प्रतापन ( आयाबेज्जा पयाबेज्जा ) : आयाव ( आ + तापय् ) - थोड़ा या एक बार सुखाना, तपाना। पथाव ( प्र + तापय् ) - बहुत या अनेक बार सुखाना, तपाना' । सूत्र २० ८. अग्नि ( अर्माण ) अग्नि से लगा कर उल्का तक तेजस्-काय के प्रकार बतलाये गए हैं। अग्नि की व्याख्या इस प्रकार है : लोह -पिंड में प्रविष्ट स्पर्शग्राह्य तेजस को अग्नि कहते हैं । ६०. अंगारे ( इंगालं ) : रहित कोयले को अंगार कहते है लकड़ी का जलता हुआ धूम-रहित । ६१. मुर्मुर ( मुम्मुरं ) : कंडे या करसी की आग, तुषाग्नि चोकर या भूसी की आग, क्षारादिगत अग्नि को मुर्मुर कहते हैं। भस्म के विरल अग्नि अध्ययन ४ : सूत्र २० टि० ८७-१३ कण मुर्मुर हैं। ६२. अचि ( अच्चिं ) : मूल अग्नि से विच्छिन्न ज्वाला, आकाशानुगत परिच्छिन्न अग्निशिखा, दीपशिखा के अग्रभाग को अच कहते हैं । ६३. ज्वाला ( जालं ) : प्रदीप्ताग्नि से प्रतिबद्ध अग्निशिखा को ज्वाला कहते हैं । १ – (क) अ० चू० पृ० ८८ : एक्कं खोडनं अक्खोडणं, भिसं खोडनं पक्खोडणं । एवं वारं जं अक्लोडेड (ख) जि० ० ० १५५ (ख) हा० टी० १० १५३ वा सदीदा स्फोटनमा स्फोटनमतोपत्यस्फोटनम् । ईसि तावणमातावणं, प्रगतं तावणं पतावणं । १५५: ईसिसि तावणं आतावणं, अतीव तावणं पतावणं । १५३: सकृदोषद्वा तापनमातापनं विपरीतं प्रतापनम् । १५५-५६ : अगणी नाम जो अयपिंडाणुगयो फरिसगेज्झो सो आयपिंडो भण्णइ । २ (क) अ० चू० पृ० ८८ (ख) जि० चू० पृ० (ग) हा० टी० प० ३ (क) जि० चू० पृ० (ख) हा० टी० प० १५४ अवस्पिण्डानुगतोऽग्निः । ४ (क) अ० ० १० ८ इंगाल वा खदिरादीन पिट्टण धूमविरहितो इंगालो । (ख) जि० चू० प० १५६ : इंगालो नाम जालारहिओ । (ग) हा० टी० प० १५४ : ज्वालारहितोऽङ्गारः । ५ (क) अ० ० ० ८६ करिगामीण किचि सिद्धो अग्गी मुम्मुरो । (ख) जि० चू० पृ० १५६ : मुम्मुरो नाम जो छाराणुगओ अग्गी सो मुम्मुरो । (ग) हा० टी० प० १५४ : विरलाग्निकणं भस्म मुर्मुरः । ६ (क) अ० चू० पृ० ८६ : दीवसिहासिहरादि अच्ची । (ख) जि० चू० पृ० १५६ अनाम जगासाग परिच्छिष्णा अग्मिसिहा । (ग) हा० टी० १० १५४ मूलानिविदन्ना ज्याला अि -(क) अ० चू० पृ० ८६ : उद्दितोपरि अविच्छिष्णा जाला । (ख) जि० चू० पृ० १५६ : ज्वाला पसिद्धा चैव । (ग) हा० टी० प० १५४ प्रतिबद्धा ज्वाला । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy