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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) १५० अध्ययन ४ सूत्र १६ टि० ७६७६ न आलेखन करेन भेदन करे ( न आलिहेज्जा न भिदेज्जा) : दसवें सूत्र में छह प्रकार के जीवों के प्रति त्रिविधत्रिविध से दण्ड- समारम्भ न करने का त्याग किया गया है। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह ये जीवों के प्रति दण्ड-स्वरूप होने से मुमुक्षु ने प्राणातिपात विरमण आदि महाव्रत ग्रहण किये । सूत्र १८ मे २३ में छह प्रकार के जीवों के कुछ नामों का उल्लेख करते हुए उनके प्रति हिंसक क्रियाओं से बचने का मार्मिक उपदेश है और साथ ही भिक्षु द्वारा प्रत्येक की हिंसा से बचने के लिए प्रतिज्ञा ग्रहण है । पृथ्वी भित्ति, शिला देने, सचित रजपे पृथ्वीकाय जीवों के साधारण से साधारण उदाहरण हैं। हाथ पाँव, काष्ठ, गाय आदि उपकरण भी साधारण से साधारण हैं । आलेखन, विलेखन, घट्टन और भेदन - हिंसा की ये क्रियाएं भी बड़ी साधारण हैं । इसका तात्पर्य यह है कि भिक्षु साधारण से साधारणपृथ्वीकायिक जीवों का भी साधारण से साधारण साधनों द्वारा तथा साधारण क्रियाओं द्वारा मी हनन नहीं कर सकता; फिर क्रूर साधनों द्वारा तथा स्थूल क्रियाओं द्वारा हिंसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यहाँ भिक्षु को यह विवेक दिया गया है कि वह हर समय हर स्थान में, हर अवस्था में किसी भी पृथ्वीकायिक जीव की किसी भी उपकरण से किसी प्रकार हिंसा न करे और सब तरह की हिसक क्रियाओं से बचे 7 यही बात अन्य स्थावर और त्रस जीवों के विषय में सूत्र १६ से २३ में कही गयी है और उन सूत्रों को पढ़ते समय इसे ध्यान में रखना चाहिए। सूत्र १६ : ७६. उदक ( उदगं ) : जल दो प्रकार का होता है---भौम और आन्तरिक्ष । जल को शुद्धोदक कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं(१) धारा-जल, (२) करक-जल, (३) हिम-जल और (४) तुषार-जल इनके अतिरिक्त सभी अन्तरिक्ष जल है। भूम्याधित या भूमि के स्रोतों में बहने वाला जल भौम कहलाता है । इस भौम-जल के लिए 'उदक" शब्द का प्रयोग किया गया है । उदक अर्थात् नदी, तालाबादि का जल, शिरा से निकलने वाला जल । ७७. ओस ( ओसं ) : रात में, पूर्वाह्न या अपराह्न में जो सूक्ष्म जल पड़ता है उसे ओस कहते हैं । शरद ऋतु की रात्रि में मेघोत्पन्न स्नेह विशेष को कहते हैं। ७८. हिम (हिमं ) : बरफ या पाला को हिम कहते हैं । अत्यन्त शीत ऋतु में जो जल जम जाता है उसे हिम कहते हैं । ७६. घूँअर ( महियं ) : शिशिर में जो अंधकार कारक तुषार गिरता है उसे महिका, कुहरा या धूमिका कहते हैं । १- अ० चू० पृ० ८८ : अन्तरिखखपाणितं सुद्धोदगं । २ (क) अ० ० ० नवि-सागादितिं पाणिमुदयं । (ख) जि० चू० पू० १५५ उदगग्गहणेण भोमस्त आउक्कायस्स गहणं कथं । (ग) हा० टी० प० १५३ : उदकं - शिरापानीयम् । ३ -- (क) अ० चू० पृ० ८८ : सरयादौ णिसि मेघसंभवो सिणेह विसेसो तोस्सा 1 (ख) जि० चू० पृ० १५५ : उस्सा नाम निसि पडइ, पुव्वण्हे अवरण्हे वा, सा व उस्सा तेहो भण्ण्ड । (ग) हा० टी० प० १५३ । अवश्यायः हः । ४ (क) अ० पू० पृ० ८८ अति सोतायत्वंभितमुदगमेव हिमं । (ख) हा० टी० प० १५३ : हिमं स्त्यानोदकम् । ५- (क) अ० चू० पृ० ८८ पातो सिसिरे दिसाधकारकारिणी महिता । (ख) जि० चू० पृ० १५५ : जो सिसिरे सारो पडइ सो महिया भण्ण्ई । (ग) हा० डी० पं० १५३ महिका भूमिका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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