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छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका )
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अध्ययन : सूत्र १८ टि०७०-७५ जिनदास महत्तर ने प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में 'सरक्ख' का अर्थ 'पांशु' किया है और उस अरण्यपांशु सहित वस्तु को 'सस रक्ख' माना है। प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में अगस्त्यसिंह स्थविर के शब्द भी लगभग ऐसे ही हैं । ७०. खपाच ( किलिचेण ) :
बाँस की खपची, क्षुद्र काष्ठ-खण्ड । ७१. शलाका-समूह ( सलागहत्थेण ):
काष्ठ, तांबे या लोहे के गढ़े हुए या अनगढ़ टुकड़े को शलाका कहा जाता है। हस्त भूयस्त्ववाची शब्द है५ । शलाकाहस्त अर्थात् शलाका-समूह। ७२. आलेखन ( आलिहेज्जा):
यह 'आलिह' (आ।-लिख) धातु का विधि-रूप है। इसका अर्थ है- कुरेदना, खोदना, विन्यास करना, चित्रित करना, रेखा करना। प्राकृत में 'आलिह' धातु स्पर्श करने के अर्थ में भी है। किन्तु यहाँ स्पर्श करने की अपेक्षा कुरेदने का अर्थ अधिक संगत लगता है ।
जिनदास ने इसका अर्थ -'ईसि लिहणं' किया है । हरिभद्र 'आलिखेत्' संस्कृत छाया देकर ही छोड़ देते हैं । ७३. विलेखन (विलिहेज्जा ):
(वि+लिख्) आलेखन और विलेखन में 'धातु' एक ही है केवल उपसर्ग का भेद है । आलेखन का अर्थ थोड़ा या एक बार करेदना और विलेखन का अर्थ अनेक बार कुरेदना या खोदना है। ७४. घट्टन ( घट्टेज्जा ):
यह 'घट्ट' ( घट्ट ) धातु का विधि-रूप है । इसका अर्थ है हिलाना, चलाना । ७५. भेदन (भिदेज्जा ):
यह भिद (भिद्) धातु का विधि-रूप है। इसका अर्थ है- भेदन करता, तोड़ना, विदारण करना, दो-तीन आदि भाग करना।
१-जि० चू० पृ० १५४ : सरक्खो नाम पंसू भण्णइ, तेण आरण्णपंसुणा अणुगतं ससरक्खं भण्ण । २--अ० चू० पृ० ८७ : सरक्खो पंसू, तेण अरण्यपंसुणासहगतं -- ससरक्खं । ३- (क) नि० चू० ४.१०७ : किलिचो-वंशकप्परी ।
(ख) जि० चू० पृ० १५४ : कलिचं-कारसोहिसादीणं खंडं । (ग) हा० टी०प० १५२ : कलिजेन वा-क्षुद्रकाष्ठरूपेण ।
(घ) अ० चू० १०८७ : कलिंचं तं चेव सण्हं । ४ - (क) अ० चू : सलागा कट्ठमेव घडितगं । अघडितगं कळं।
(ख) नि० चू० ४.१०७ : अण्णतरकट्ठयडिया सलागा।
(ग) जि० चू० पृ० १५४ : सलागा घडियाओ तंबाईणं । ५-अ० चि० : ३.२३२ । ६ - (क) जि० चू० पृ० १५४ : सलागाहत्थओ बहुरिआयो अहवा सलागातो घडिल्लियाओ तासि सलागाणं संघाओ सलागाहत्थो ।
(ख) हा० टी० १० १५२ : शलाकया वा--अयःशलाकादिरूपया शलाकाहस्तेन वा--शलाकासंघातरूपेण । ७-(क) अ० चू० १०८७ : इस लिहणमालिहणं विविहं लिहणं विलिहणं ।
(ख) जि. चू० पृ० १५४ : आलिहणं नाम ईसि, विलिहणं विविहेहिं पगारेहिं लिहणं ।
(ग) हा० टी० ५० १५२ : ईषत्सकद्वाऽऽलेखन, नितरामनेकशो वा विलेखनम् । ८-(क) अ० चू० पृ० ८७ : घट्टणं संचालणं ।
(ख) जि० चू० पृ० १५४ : घट्टणं बहूणं ।
(ग) हा० टी० ५० १५२ : घट्टनं चालनम् । ६-(क) अ० चू पृ० ८७ : भिंदणं भेदकरणम् ।
(ख) जि० चू० पृ० १५४ : भिदणं दुहा वा तिहा बा करणंति । (ग) हा० टी०प०१५२ । भेदो विदारणम् ।
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