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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
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अध्ययन ४ सूत्र १८ टि०६५-६६ अर्थ किया है' । यहाँ 'एगओ' शब्द का वास्तविक अर्थ अकेले में एकांत में है। कई साधु एक साथ हों और वहाँ कोई गृहस्थ आदि उपस्थित न हो तो उन साधुओं के लिए यह भी एकांत कहा जा सकता है ।
६५. पृथ्वी ( पुढवि ) :
पाषाण, ढेला आदि के सिवा अन्य पृथ्वी' |
६६. भित्ति ( भित्ति ) :
जिनदास ने इसका अर्थ नदी किया है। हरिभद्र ने इसका अर्थ नदीतटी किया है | अगस्त्यसिंह के अनुसार इसका अर्थ नदीपर्वतादि की दरार, रेखा या राजि है । यही अर्थ उचित लगता है ।
६७. शिला (सिल) :
विशाल पाषाण या विच्छिन्न विशाल पाषाण को शिला कहते हैं ।
६८. ढेले ( लेलुं ) :
मिट्टी का लघु पिण्ड अथवा पाषाण का छोटा टुकड़ा ।
६६. सचित्त रज से संसृष्ट ( ससरवखं ) :
अरण्य के वे रजकण जो गमनागमन से आक्रान्त नहीं होते सजीव माने गए हैं। उनसे संदिलष्ट वस्तु को 'सरजस्क' कहा जाता है। आवश्यक ४.१ की वृद्धि में 'समर' की व्याख्या 'सहरवसेणं सरखे' की है।)
हरिभद्रसूरि के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'सरजस्क' है' । अर्थ की दृष्टि से 'सरजस्क' शब्द संगत है किन्तु प्राकृत शब्द की संस्कृत छाया करने की दृष्टि से वह संगत नहीं है । व्याकरण की दृष्टि से 'सरजस्क' का प्राकृत रूप 'सरयक्ख' या 'सरवख' होता है । किन्तु यह शब्द समर है इसलिए इसका संस्कृत रूप 'सरल' होना चाहिए अगस्त्यसिह स्थविर ने इसकी जो व्याख्या की है (५.८) वह 'ससरक्ष' के अनुकूल है। राख के समान अत्यन्त सूक्ष्म रजकणों को 'सरक्ख' और 'सरवख' से संश्लिष्ट वस्तु को 'ससरक्ख' कहा जाता है" । ओघनिर्युक्ति की वृत्ति में 'सरक्ख' का अर्थ राख किया गया है" ।
१ (क) जि० ० १० १२४ : कारणिएण या एगेन ।
(ख) हा० टी० प० १५२ : कारणिक एकः ।
२ (क) अ० चू० पृ० ८७ : पुढवी सक्करादीविकप्पा |
(ख) जि० चू० पृ० १५४ : पुढविग्गणेणं पासाणलेट्टुमाईहिं रहियाए पुढवीए गहणं । (ग) हा० टी० प० १५२ :
३ - जि० चू० पृ० १५४ : भित्ती नाम नदी भण्णइ ।
४- हा० टी० प० १५२ भित्तिः नदीतटी ।
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५. अ० चू० पृ० ८७ : भित्ती नदी-पव्वतादि तडी ततो वा जं अवलितं ।
६ (क) अ० ० ० ७ सिला सवित्वा पाहाणविसेसो
(ख) जि० ० १५४ : सिला नाम विच्छिण्णो जो पाहाणो स सिला
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(ग) हा० टी० प० १५२ : विशाल: पाषाणः ।
(क) अ० चू० पृ० ८७ : लेलू मट्टियापिंडो । (ख) जि० चू० पृ० १५४ : लेलु लेट्टुओ । ८- ओ० नि० २४-२५ ।
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६ - हा० टी० प० १५२: सह रजसा आरण्यपांशुलक्षणेन वर्तत इति सरजस्कः । १०-२० ० ५० १०१ सरबतो' सुसहोछारसरिसा पुढविरतो। सहसरक्वेण ससरक्खो । ११ - ओघ नि० ३५६ वृत्ति: सरक्खो - भस्म ।
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