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छज्जीवणिया (षड्जीवनिका )
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अध्ययन ४ : सूत्र १८ टि०६४ अगस्त्यसिंह के अनुसार पापों से निवृत्त भिक्षु विरत कहलाता है। जिनदास और हरिभद्र सूरि के अभिमत से बारह प्रकार के तप में अनेक प्रकार से रत भिक्षु विरत कहलाता है।
'पापकर्मा' शब्द का सम्बन्ध 'प्रतिहत' और 'प्रत्याख्यात' इनमें से प्रत्येक के साथ है।
जिनदास और हरिभद्र के अनुसार जिसने ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में से प्रत्येक को हत किया हो वह प्रतिहत-पापकर्मा है। जिनदास और हरिभद्र के अनुसार जो आस्रवद्वार (पाप-कर्म आने के मार्ग) को निरुद्ध कर चुका वह प्रत्याख्यात-पापकर्मा कहलाता है।
जिनदास महत्तर ने आगे जाकर इन शब्दों को एकार्थक भी कहा है।
अनगार या साधु के विशेषण रूप से इन चार शब्दों का प्रयोग अन्य आगमों में भी प्राप्त है । संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्मा अनगार के विषय में विविध प्रश्नोत्तर आगमों में मिलते हैं। अत: इन शब्दों के मर्म को समझ लेना आवश्यक है ।
पाँच महाव्रत और छ8 रात्रि-भोजन-विरमण व्रत को अंगीकार कर लेने के बाद व्यक्ति भिक्षु कहलाता है। यह बताया जा चुका है कि महाव्रत ग्रहण करने की प्रक्रिया में तीन बातें रहती हैं--(१) अतीत के पापों का प्रतिक्रमण (२) भविष्य के पापों का प्रत्याख्यान और (३) वर्तमान में मन-वचन-काया से पाप न करने, न कराने और न अनुमोदन करने की प्रतिज्ञा । भिक्षु-भिक्षुणी के सम्बन्ध में प्रयुक्त इन चारों शब्दों में महाव्रत ग्रहण करने के बाद व्यक्ति किस स्थिति में पहुँचता है उसका सरल, सादा चित्र है । प्रतिहत-पापकर्मा वह इस लिए है कि अतीत के पापों से प्रतिक्रमण, निंदा, गर्दा द्वारा निवृत्त हो वह अपनी आत्मा के पापों का व्युत्सर्ग कर चुका है । वह प्रत्याख्यातपापकर्मा इसलिए है कि उसने भविष्य के लिए सर्व पापों का सर्वथा परित्याग किया है। वह संयत-विरत इसलिए है कि वह वर्तमान काल में किसी प्रकार का पाप किसी प्रकार से नहीं करता-उनसे वह निवृत्त है । संयत और विरत शब्द एकार्थक हैं। इस एकार्थकता को निष्प्रयोजन समझ संभवतः विरत का अर्थ तपस्या में रत किया हो। जो ऐसा भिक्षु या भिक्षुणी है उसका व्रतारोपण के बाद छह जीवनिकाय के प्रति कैसा बर्ताव रहना चाहिए उसी का वर्णन यहाँ से आरम्भ होता है। ६४. दिन में या रात में ( दिया वा राओ वा... ) :
अध्यात्मरत श्रमण के लिए दिन और रात का कोई अन्तर नहीं होता अर्थात् वह अकरणीय कर्म को जैसे दिन में नहीं करता वैसे रात में भी नहीं करता, जैसे परिषद् में नहीं करता वैसे अकेले में भी नहीं करता, जैसे जागते हुए नहीं करता वैसे शयन-काल में भी नहीं करता।
जो व्यक्ति दिन में, परिषद् में या जागृत दशा में दूसरों के संकोचवश पाप से बचते हैं वे बहिष्टि हैं-आध्यात्मिक नहीं हैं।
जो व्यक्ति दिन और रात, विजन और परिषद्, सुप्ति और जागरण में अपने आत्म-पतन के भय से, किसी बाहरी संकोच या भय से नहीं. पाप से बचते हैं-परम आत्मा के सान्निध्य में रहते हैं वे आध्यात्मिक हैं।
____ दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते हुए या जागते हुए'.-ये शब्द हर परिस्थिति, स्थान और समय के सूचक है। साधु कहीं भी, कभी भी आगे बतलाये जाने वाले कार्य न करे।
'साधु अकेला विचरण नहीं करता'-इस नियम को दृष्टि में रखकर ही जिनदास और हरिभद्र सूरि ने 'कारणवश अकेला' ऐसा
१-अ० चू० पृ० ८७ : पावेहिन्तो विरतो पडिनियत्तो। २-(क) जि० चू० पृ० १५४ : विरओ णामऽणेगपगारेण बारसविहे तवे रओ।
(ख) हा० टी० ५० १५२ : अनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः । ३-(क) अ० चू० पृ० ८७ : पावकम्म सद्दो पत्तेयं परिसमप्पति ।
(ख) जि० चू० पृ० १५४ : पावकम्मसद्दो पत्तेयं पत्तेयं दोसुवि वट्टइ, तं० ---पडिहयपावकम्मे पच्चक्खायपावकम्मे य । ४- (क) जि० चू० पृ० १५४ : तत्थ पडिहयपावकम्मो नाम नाणावरणादीणि अट्ठ कम्माणि पत्तेयं पत्तेयं जेण हयाणि सो पडिय
पावकम्मो। (ख) हा० टी० ५० १५२ : प्रतिहतं-स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन । ५- (क) जि० चू० पृ० १५४ : पच्चक्खायपावकम्मो नाम निरुद्धासवदुवारो भण्णति ।
(ख) हा० टी०प०१५२ : प्रत्याख्यातं हेत्वभावत: पुनर्वद्ध यभावेन पापं कर्म-ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः । ६ -जि० चू० पृ० १५४ : अहवा सव्वाणि एताणि एगट्ठियाणि । ७-(क) अ० चू० पृ० ८७ : सव्वकालितो णियमो त्ति कालविसेसणं-दिता वा रातो वा सव्वदा ।
(ख) वही, पृ०८७ : चेट्टा अवत्थंतरविसेसणत्थमिदं -सुते वा जहाभणितनिद्दामोक्खत्यसुत्ते जागरमाणे वा सेसं कालं।
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