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छज्जीवणिया (षड्जीवनिका )
३ -- काल दृष्टि से उसका विषय रात्रि है । ४ - भाव- दृष्टि से चतुर्भङ्ग ।
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सूत्र १७:
अध्ययन ४ सू० १७-१८ टि० ६१-६३
६१. आत्महित के लिए ( अन्तहियद्रुयाए ) :
।
आत्महित का अर्थ मोक्ष है। मुनि मोक्ष के लिए या उत्कृष्ट मङ्गलमय धर्म के लिए महाव्रत और व्रत को स्वीकार करता है । अन्य हेतु से व्रत ग्रहण करने पर व्रत का अभाव होता है। आत्महित से बढ़कर कोई सुख नहीं है, इसलिए भगवान ने इहलौकिक सुखसमृद्धि के लिए आचार को प्रतिपन्न करने की अनुज्ञा नहीं दी पौगलिक अनैकान्तिक हैं उनके पीछे दुःख का संयोग होता है | पौद्गलिक सुख के जगत् में ऐश्वर्य का तरतमभाव होता है ईश्वर, ईश्वरतर और ईश्वरतम । इसी प्रकार हीन, मध्यम और उत्कृष्ट अवस्थाएँ होती हैं । मोक्ष जगत् में ये दोष नहीं होते। इसलिए समदर्शी श्रमण के लिए आत्महित- मोक्ष ही उपास्य होता है और वह उसी की सिद्धि के लिए महाव्रतों का कठोर मार्ग अङ्गीकार करता है' ।
६२. अंगीकार कर विहार करता हूँ ( उवसंपज्जित्ताणं विहरामि ) :
उपसंपद्य का अर्थ है- उप- समीप, में संपद्य - अंगीकार कर अर्थात् गुरु के समीप ग्रहण कर सुसाधु की विधि के अनुसार विचरण करता हूँ । हरिभद्रसूरि कहते हैं ऐसा न करने पर लिए हुए व्रत अभाव को प्राप्त होते हैं । भावार्थ है – आरोपित व्रतों का अच्छी तरह अनुपालन करते हुए अप्रतिबंध विहार से ग्राम, नगर, पत्तन आदि में विहार करूँगा ।
वर्णिकारों ने इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार दिया है—“गणधर भगवान् से पांच महाव्रतों के अर्थ को सुनकर ऐसा कहते हैं— 'इन्हें ग्रहण कर विहार करेंगे।"
सूत्र १८ :
६३. संयत विरत प्रतिहत प्रत्याख्यात- पापकर्मा ( संजय विरय-पडिय-पच्चवलाय पावकम्मे ) : सतरह प्रकार के संयम में अच्छी तरह अवस्थित साधक को संयत कहते हैं ।
१ (क) अ० ० पृ० ८६ असता अप्यणोहितं जो धम्मो मंगलमिति भणितो तदट्ट ।
(ख) जि० चू० पृ० १५३ : अत्तयिं नाम मोक्खो भण्णइ, सेसाणि देवादीणि ठाणाणि बहुदुक्खाणि अप्पसुहाणि य, कहं ?, जम्हा तत्व इसरो इस्सरतरो इस्सरतमो एवमादी होममित्तिमविसेस उपसभंति अनेगंतियाणि वखाणि मोक्ले य एते दोसा नत्थि, तम्हा तस्स अट्टयाए एयाणि पंच महाव्ययाणि राईभोयणवेरमणछट्टाई असहियट्ठाए उवसंजित्ताणं विरामि ।
(ग) हा० टी० प० १५० : आत्महितो- मोक्षस्तदर्थम् अनेनान्यार्थ तत्त्वतो व्रताभावमाह, तदभिलाषानुमत्या हिंसादावनुमत्यादिभावात् ।
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२ (क) अ० चू० पृ० ८६ : "उवसंपज्जित्ताणं विहरामि" "समानकर्तृ कयोः पूर्वकाले" इति 'उपसंपद्य विहरामि' महन्वताणि पडिवज्जंतस्स वयणं, गणहराणं वा सूत्रीकरेंताणं ।
(ख) हा० टी० प० १५० 'उपसंपद्य' सामीप्येनाङ्गीकृत्य व्रतानि 'विहरामि' सुसाधुविहारेण तदभावे चाङ्गीकृतानामपि व्रतानामभावात् ।
(ग) जि० ० ० १५३ संपाविरामि नामतानि जावहिण अनुपालयतो अज्जम विहारेण अनिस्सियं गामनगरपट्टणाणि विहरिस्सा अहवा गहरा भगवती समासे पंचमहस्यवाणं अत्यं सोऊण एवं भांति उवसंप जिसागं विहरिस्साथि' ।
३ (क) अ० ० ० ८७ संजतो एक्कीभावेण सारसविहे संजमे डितो।
(ख) जि० पू० पृ० १५४ संजओ नाम सोभने पगारेण सत्तरसविहे जमे अद्विओ संजतो भवति ।
(ग) हा० टी० प० १५२ : सामस्त्येन यतः संयतः सप्तदशप्रकारसंयमोपेतः ।
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