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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन ४: सूत्र १६ टि० ६० २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय समूचा लोक है । लोक में ही हिंसा सम्भव है। ३-काल-दृष्टि से उसका विषय सर्वकाल है। रात व दिन सब समय हिंसा हो सकती है।
४-भाव-दृष्टि से उसका हेतु राग-द्वेष है। जैसे मांस के लिए राग से हिसा होती है। शत्रु का हनन द्वेषवश होता है । मृषावाद के चार विभाग इस प्रकार हैं :
१-द्रव्य-दृष्टि से मृषावाद का विषय सब द्रव्य हैं, क्योंकि मपावचन चेतन तथा अचेतन सभी द्रव्यों के विषय में बोला
जा सकता है। २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय लोक तथा अलोक दोनों हैं, क्योंकि मृषावाद के विषय ये दोनों बन सकते हैं। ३-काल-दृष्टि से उसका विषय दिन और रात हैं।
४-भाव दृष्टि से उसके हेतु क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि हैं। अदत्तादान के चार विभाग इस प्रकार हैं:
१-द्रव्य-दृष्टि से अदत्तादान का विषय पदार्थ है। २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय अरण्य, ग्राम आदि हैं । ३-काल-दृष्टि से उसका विषय दिन और रात हैं।
४ --भाव-दृष्टि से अल्पमूल्य और बहुमूल्य । मैथुन के चार विभाग इस प्रकार हैं :
१-द्रव्य-दृष्टि से मैथुन का विषय चेतन और अचेतन पदार्थ हैं। २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय तीनों लोक हैं । ३-काल-दृष्टि से उसका विषय दिन और रात हैं।
४-भाव-दृष्टि से उसका हेतु राग-द्वेष है। परिग्रह के चार विभाग इस प्रकार हैं :
१-द्रव्य-दृष्टि से परिग्रह का विषय सर्व द्रव्य हैं । २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय पूर्ण लोक है । ३-काल-दृष्टि से उसका विषय दिन और रात हैं।
४--भाव-दृष्टि से अल्पमूल्य और बहुमूल्य । रात्रि-भोजन के चार विभाग इस प्रकार होते हैं :
१-द्रव्य-दृष्टि से रात्रि-भोजन का विषय अशन आदि वस्तु-समूह हैं । २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय मनुष्य लोक है।
१–जि० चू० पृ० १४८ : इयाणि एस चउविहो मुसावाओ सवित्थरो भण्णइ, तं० - दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ देव्वओ
सव्वदव्वेसु मुसावाओ भवइ, खेत्तओ लोगे वा अलोगे वा, णो भणेज्जा अणंतपएसिओ लोगो एवमादी, अलोगे अस्थि जीवा
पोग्गला एवमादी, कालओ दिया वा राओ वा मुसावायं भणेज्जा, भावओ कोहेणं अभक्खाण देज्जा एवमादी। २-जि० चू० पृ० १४६ : चउन्विहंपि अदिण्णादाणं वित्थरओ भण्णति, तं० दवओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ दम्वओ ताव
अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा गेण्हेज्जा, - खेत्तओ जमेतं दब्बओ भणियं एवं गामे वा णगरे वा
गेण्हेज्जा अरण्णे वा, कालओ दिया वा राओ वा गेण्हेज्जा, भावओ अपपधे वा। ३-जि० चू० पृ० १५० : चउम्विहंपि मेहुणं वित्थरओ भण्णइ, त० - दवओ खेत्तओ कालो भावओ य, तत्थ दवओ मेहुणं रूवेसु
वा स्वसहगएसु वा दब्वेसु, खेत्तओ उड्ढमहोतिरिएसु,..... कालओ मेहुणं दिया वा राओ वा, भावओ रागेण वा दोसेण
वा होज्जा। ४-जि० चू० पृ० १५१ : चउन्विहोवि परिग्गहो वित्थरओ भण्णइ–दब्वओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ दवओ सव्वदव्वेहि,...
खेत्तओ सव्वलोगे,..... कालओ दिया वा राओ वा, भावओ अप्पग्धं वा महग्धं वा ममाएज्जा। ५-जि० चू० पृ० १५२ : चउम्विहं पि राईभोयणं वित्थरओ भण्णइ, तं०-बम्बओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ दव्वओ असणं
वा,..... खेत्तओ समयखेत्ते..... कालओ राई भुजेज्जा, भावओ चउभंगो।
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