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________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १४४ अध्ययन ४ सूत्र १६ टि० ६० (६.१७) में निधि को परियह माना है और उत्तराध्ययन (१२.३०) में रात्रि भोजन और सन्निधि-संचय के वर्जन को दुरकर कहा है । वहाँ इनके परिग्रह रूप की स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है । | पांच महाव्रत मूलगु और रात्रि भोजन-विरमण उत्तरगुण है फिर भी यह मूल गुणों की रक्षा का हेतु है इसलिए इसका मूल गुणों के साथ प्रतिपादन किया गया है ऐसा अगरसिंह स्थविर मानते हैं। जिनदास महत्तर के अनुसार प्रथम तीर्थंकर के मुनिज और लद होते हैं, इसलिए वे महाव्रतों की तरह मानते हुए इसका (रात्रि भोजन-विरमण का इस दृष्टि से इसे महाव्रतों के साथ बताया गया है। मध्यवर्ती तीर्थदूरों के मुनियों के लिए उत्तरगुण कहा गया है क्योंकि वे ऋजुप्रज्ञ होते हैं इसलिए इसे सरलता से छोड़ देते हैं। टीकाकार ने इसे ऋजुजड और वजड मुनि की अपेक्षा से मूलगुण और की अपेक्षा से उत्तरनुग माना है। और परम पालन करें ६०. अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ( असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ) : १ – अशन - क्षुधा मिटाने के लिए जिस वस्तु का भोजन किया जाता है, उसे अशन कहते हैं । जैसे कूर - ओदनादि । २- पान - जो पीया जाय उसे पान कहते हैं। जैसे मृद्वीका - द्राक्षा का जल आदि । ३ – खाद्य - जो खाया जाय उसे खादिम या खाद्य कहते हैं । जैसे मोदक, खर्जूरादि । ४ - स्वाद्य - जिसका स्वाद लिया जाय उसे स्वादिम अथवा स्वाद्य कहते हैं । जैसे ताम्बूल, सोंठ आदि प्राणातिपात आदि पाँच पाप और रात्रि भोजन के द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव की दृष्टि से चार विभाग होते हैं । अगस्त्य णि के अनुसार एक परम्परा इस विभाग चतुष्टयी को मूल पाठ में स्वीकृत करती है और दूसरी परम्परा उसे 'वृत्ति' का अंग वाक्य-खंड को सूत्रगत स्वीकार करते हैं उनके अनुसार सूत्र- पाठ इस प्रकार होगा तसं दव्वतो, खेत्ततो, कालतो, भावतो नेव सयं पाणे ' यह क्रम सभी महाव्रतों और मारती हैं । जो इस विभाग चतुष्टयी के प्ररूपक वा थावरं वा । जहा सेतं पाणिपाते चतुविहे, तं० छट्ठे व्रत का है । प्राणातिपात द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टिकोण से व्यवछिन्न होता है : १- द्रव्य-दृष्टि से उसका विषय छह जीवनिकाय है। हिंसा सूक्ष्म बादर छह प्रकार के जीवों की होती है । १-० ५० ५० ६ किरातीभोवणं मूलगुणः उत्तरगुणः ? उत्तरगुण एवायं तहादि सम्यमूलगुणरक्तहेतुति मूलगुणसम्भूतं पढिज्जति । , २०० पृ० १५३ पुरिम जिनकाले पुरिसा उज्जडा पस्मिजिणकाले पुरिसा पंकजडा, अतो निमितं महम्यवाण उबर वियं जेण तं महम्बयमिव मन्नता पिल्लेहिति मज्झिमाणं पुण एवं उत्तरगुणे कहिये कि कारणं ?, जेण ते उज्जुपण्णत्तणेण सुहं चैव परिहरति । ३- हा० टी० प० १५० एतच्च रात्रिभोजनं महाव्रतोपरि पठित, मध्यमतीर्थकर तीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति । प्रथमरचमतीर्थकर तीर्थयोः ऋजुजडव जडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं Jain Education International -(क) अ० चू० पृ० ८६ : ओदणादि असणं, मुद्दितापाणगाती पाणं, मोदगावी खादिमं, पिप्पलिमादि सादिमं । (ख) जि०चू० पृ० १५२ : असिज्जइ खुहितेहि जं तमसणं जहा कूरो एवमादीति, पिज्जतीति पाणं, जहा मुद्दियापाणगं एवमाइ, जतीति खादिमं जहा मोदओ एवमावि, सादिति सादिमं जहा खुंडिगुलादी । (ग) हा०टी प० १४६ : अश्यत इत्यशनम् - ओदनादि, पीयत इति पानं मृद्वीकापानादि । खाद्यत इति खाद्यं - खर्जूरादि । स्वाद्यत इति स्वाद्यं ताम्बूलादि । ५- अ० चू० पृ० ८६ : के ति सुत्त मिमं पदंति, के ति वृत्तिगतं विसेसंति । ६- जि००० १४७ इयाणि एस एव पाणाइवाओ चव्यिहो सबित्थरो भण्ण, ० दबओ खेत्तओ कालओ भावओ, दबओ सुजीवनिकाए सुमवादरेसु भवति खेसओ सम्यालोगे कि कारणं ?, जेण सम्यलोए तत्स पाणावायरस उपपत्ती अस्थि, कालओ दिया वा राओ वा ते चेव सुहुमबादरा जीवा ववरोविज्जति, भावओ रागेण वा दोसेण वा तत्थ रागेण सादी अट्ठाए, अहवा रागेण कोइ कंचि अणुमरति, दोसेण बितियं मारेइ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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